व्यवहार हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य है। जिसका व्यवहार अच्छा नहीं उसका परमार्थ भी ठीक नहीं कहा जाता है। हाँ, यह तो है कि जिसका परमार्थ सही है उसका व्यवहार भी अच्छा होगा क्योंकि यह दोनों काम मन के ही द्वारा होता है। अशुद्ध मन न व्यवहार संभाल सकता है न परमार्थ। जब तक मन में रजोगुणी और तपोगुनी धारें उठती रहेंगी व्यवहार सत्य नहीं हो सकता।
आशावादी बन कर दूसरों का मार्गदर्शन करें
इसलिए प्रथम मन को स्वच्छ बनाए। मन बनता है सत्संग या ईश्वर भजन से। मन को ईश्वर के चरणों की ओर लगाने से उसमे सत की अधिकता होने लगती है क्योंकि भगवान का स्वरूप सत्य है। जब हम नित्य सत्य की आराधना करेंगे तो सत्य का दर्शन होगा।
जब तक हम सत्य के समीप नहीं पहुँचेंगे हमारी बुद्धि सत्य-असत्य का निर्णय भी नहीं कर सकती और बिना निर्णय किये हम अपने व्यवहार को भी शुद्ध नहीं कर सकते।
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हम संसार में जो कुछ करते है व्यवहार है। तुम जैसा करोगे वही सामने आयेगा। यह संसार एक शीशा है, जैसा मुख बनाओगे वैसा ही दिखेगा। हम अपने साथ औरों का अच्छा व्यवहार चाहते है, लेकिन इससे पहले अपना औरों के साथ कैसा व्यवहार है यह ज़रुर देख लें।
अगर आपका व्यवहार औरों के साथ अच्छा है तो निश्चय ही लोग आपको दिल से चाहेंगे और अगर आपका व्यवहार दिखावटी है तो बस औरों का भी दिखावटी व्यवहार पाओगे, जो थोथा और बेकाम का होगा। दैनिक व्यवहार में भी देखने में आता है कि जो मुझे जैसा देता है उससे अधिक देने की मेरी इच्छा उसके लिए होती है।
इस विचार को तो बिलकुल भूल जाओ कि मैं बनावटी व्यवहार से दूसरे को अपने वश में कर लूँ। हर एक का मन एक ऐसा यंत्र है कि तत्काल सब बतला देता है। मनुष्य समझे तो कोई बात नहीं, पक्षी और जानवर भी सब कुछ जानते है।
देखा गया है कि जंगली हिंसक जानवर भी ऋषि मुनियों तथा सदाचारी मनुष्यों का भय नहीं करते प्रेम करते है। ऐसा देखा भी गया है कि भेड़िये एक छोटे बालक को उठा ले गए और उन्होंने उसे पाला, बाद में लोगों ने उनसे छीन लिया और अपने घर ले आये।
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पक्षी हांथो पर बैठकर दाना खा जाते है। यह कुछ नहीं केवल हमारा उनके साथ प्रेम का बर्ताव है। प्रेम में आकर्षण है, इसीलिए जिनका प्रेम का व्यवहार है लोग उनकी ओर खिंचते चले जाते है। यह करने से नहीं बल्कि स्वयं ही होता है।
मनुष्य को एक ही तरफ का नहीं हो जाना चाहिए। वह संसार के व्यवहार में भी कुशल हो और साथ ही ईश्वर की और भी अपना दृढ़ सम्बन्ध बनाए रखे। प्रथम लोग मनुष्य का व्यवहार देखते है।
यदि आपका व्यवहार अच्छा है तो लोग आपके पास आयेंगे,आपसे प्रेम करेंगे। यदि व्यवहार कटुता का है तो कोई भी पास नहीं आयेगा, चाहे आप कितने ही अच्छे महात्मा है। जो महात्मा दूसरों को बुरी दृष्टि से या घृणा की दृष्टि से देखता है वास्तव में अभी उन्मेयाह कमी है महात्मा को नम्रता और सेवा भाव होना चाहिए दया शांत के स्वरूप ही है।
जिस मनुष्य में यह गुण होते है वही महात्मा कहलाने का अधिकार है। व्यवहार वश यदि आपको कहीं दबना भी पड़े तो कोई चिंता नहीं।
प्रसन्नता से सहन कर लेना ही गंभीरता का सूचक है। अभिमान ही व्यवहार को कटीला बना देता है, अगर परमार्थ की आपको इच्छा है तो व्यवहार को शुद्ध बनाइये। जिन बातों को अपने में कमी हो दुसरो सोसाइटी में ग्रहण करना चाहिए।