ईश्वर की शक्ति के आगे हम इंसान कुछ नहीं कर सकते। भाग्य बड़ा बलवान है। नसीब में जो लिख है, उसे टाला नहीं जा सकता। लेकिन कर्म के बिना नसीब तो नहीं बन सकता, सिर्फ भाग्य के सहारे जीने वाले लोगों का जीवन एक पल भी नहीं चल सकता। जब हम ये देखते हैं कि पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े सबके-सब अपना पेट भरने के लिए परिश्रम तो किसी न किसी रूप में करते ही हैं। फिर इंसान के बारे में हम यह क्यों निर्णय ले लेते हैं कि –
” जो भाग्य में होगा, वही तो मिलेगा “
भाग्य बनाने से बनता है। घर बैठने से नहीं। कोई किसी के लिए कुछ नहीं करता बल्कि खुद परिश्रम करके पाना पड़ता है।
भाग्य की लकीरें मुंह से नहीं बोलती, खुद इनकी आवाज़ सुननी पड़ती है। दुख और सुख जीवन के दो द्वार हैं, जो समय के अनुसार खुलते बंद होते रहते हैं।
सुख में आनंद मिलता है तो इंसान ईश्वर को भूल जाता है। उस समय तो उसके होठों से यही आवाज़ निकलती हैं कि –
- देखो मैंने यह सब कुछ करके दिखा दिया।
- मैंने यह कर दिया।
- मैंने वो कर दिया।
- मैं हर बाजी जीतता हूं।
कहने का अर्थ यह है कि प्राणी सुख में सब कुछ भूल जाता है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है कि –
“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे ने कोए
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होए। “
सुख और दुख, हमारा जीवन इन्ही के इर्द-गिर्द घूमता है। सुखी लोग दुखी की ओर देखना भी पसंद नहीं करता।
” घायल की गत घायल जाने “
जी हाँ, दुखी का दर्द केवन दुखी ही समझ सकता है।
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