श्री राम भक्त शबरी की पूरी कहानी- रामायण कि कहानी

भारतवर्ष की तपोभूमि में अनगिनत संतो, महापुरुषों व अवतारों का प्रादुर्भाव हुआ था और आज भी उसकी दिव्य ज्योति का प्रकाश धरा मंडल पर प्रकाशित हो रही है। उनके आदर्श, कार्य-प्रणाली व व्यावहारिक आचरण से भारतीय संस्कृति खुद में अद्वीतीय है। यहाँ का मानव धर्म-जाती धर्म के भेदभावों व बंधनों से ‘अध्यात्म मार्ग’ दृढ़ता से प्रशस्त हुआ है।

आधुनिक काल में भी अध्यात्म की प्रखरता पूर्ण रूप से समाज में प्रकाशित हो रही है। संतो के क्रम में मीराबाई, बेगम राबिया आदि जैसे महान विभूतियों के आत्म-प्रकाश से जन-मानस ही नहीं बल्कि भारतीय नारी भी गर्व से प्रतिष्ठा की पात्र है।

ऐसे ही एक भारतीय अवला जो पूर्ण रूप से अशिक्षित, जाती की भीलनी, गरीब व निर्धनता के वशीभूत “शबरी” के नाम से भारत के भू-मंडल पर आज भी ‘भक्ति’ की प्रतीक रूप में नक्षत्र बनकर प्रकाशित है। ‘शबरी’ खुद में भक्ति और गुरु विश्वास की अदभुद पराकाष्ठा की महिला थी, जो प्रभु राम की दया-कृपा से उनका मोक्ष पद प्राप्त करने में सफल रही थी। उसका ईश्वर प्रेम अद्वित्य था, जिसके कारण प्रभु की कृपा से उसे एक समर्थ सद्गुरु संत “श्री मतंग जी” का सानिध्य और आशीर्वाद प्राप्त हुआ था।

श्री राम भक्त शबरी की पूरी कहानी

उसके कष्टमय जीवन में गुरु की कृपा होने के कारण उसका अध्यात्म मार्ग सुलभ हो गया। गुरु की छाया व सानिध्य में रहकर वह ईश्वर की भक्ति में विलीन हो गई और गुरु आश्रम में रहकर, गुरू की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करने लगी। वह गुरू की आज्ञा का पालन करना व उनकी सेवा करना, अपना धर्म समझती थी।

इसके कारण उसका गुरु प्रेम, समर्पण व विश्वास सराहनीय ही नही बल्कि उदाहरण का प्रतीक बन चुका था। गुरु का प्रेम और भक्ति उसमें हर क्षण चरम सीमा पर प्रतिष्ठित थी जिसके कारण वह हर क्षण गुरुमय रहती थी। अपने आचरण और व्यवहार से वह गुरु प्रसाद पूर्णरूप से प्राप्त कर चुकी थी।

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समय चक्र के अनुसार महर्षि मतंग जी का शरीर वृध्वस्था की ओर बढ़ने लगा तथा जीवन का अंतिम क्षण निकट आने लगा। उन्होंने शबरी को बुलाकर अनमोल वचन, दिशा-निर्देश तथा उपदेश देते हुए कहा –

“तुम मेरे शरीर में न रहने के पश्चात इसी आश्रम में रहकर जीवन व्यतीत करना। यहीं पर तुम्हें अयोध्या नरेश राजा दशरथ के पुत्र भगवान ‘राम‘ के साक्षात् दर्शन होंगे। प्रभु राम यहाँ पर सीता माता की खोज में अपने अनुज भाई लक्ष्मण के साथ इसी आश्रम में पधारेंगे और उनके दर्शन लाभ से तुम्हारा कल्याण होगा। तुम उनकी सेवा सत्कार के उपरान्त उनके समक्ष अग्नि में प्रवेश करके, अपने इस नश्वर शरीर को भस्म कर देना।”

श्री राम भक्ति शबरी की पूरी कहानी- रामायण कि कहानी

यह उपदेश गुरु मतंग जी के अंतिम शब्द थे और उनका नश्वर शरीर समाप्त हो गया। तत्पश्चात वह अपने निज धाम सिधार गए।

गुरूदेव का अंतिम उपदेश ही शबरी के जीवन की अब आधारशिला थी। यही एक मात्र शेस जीवन का उद्देश्य भी था। वह इसी आश्रम में रहकर, गुरु स्मरण में अपना जीवन यापन करने लगी। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। शबरी अपने गुरु प्रेम व समर्पण के सहारे रहकर राम भक्ति के शिखर पर पहुँच चुकी थी।

उसका हृदय अत्यंत द्रवित और निर्मल हो चुका था। वह ईश्वर भक्ति में इतनी विलीन हो चुकी थी कि उसे अपने शरीर का आभास नहीं रहता था, यह स्थिति भी भक्ति-मार्ग की एक उत्तम दशा होती है। गुरु-वाणी पर उसका अटूट विश्वास था, जिसके फलस्वरूप वह उसे ईश्वर की ओर से प्रेषित भविष्यवाणी समझती थी।

इसी को वह सत्य वचन मानकर हर पल प्रभु श्री राम के आगमन की प्रतीक्षा करने लगी और उसके नेत्र सदैव राम आगमन की प्रतीक्षा करने लगी और उसके नेत्र सदैव राम आगमन की ओर लगे रहते थे। समयनुसार एक दिन वह समय भी उसके जीवन में आ गया।

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प्रभु श्री राम सीता की खोज करते-करते वन में जा रहे थे और वह महर्षि मतंग जी के आश्रम पहुंचे। इसी समय उनके मार्ग में कई राक्षसों का सामना करना पड़ा, जिन्हें मारकर प्रभु ने उन्हें अपने परमधाम पहुँचाया। तत्पश्चात एक अत्यंत भयानक राक्षस “काबंध” प्रभु के सामने आया, जिसके सिर व पैर नहीं थे। उसका मुँह छाती में धंसा हुआ था तथा उसकी विशाल लंबी भुजायें थी। राम-लक्ष्मण विशाल भुजाऔ से दोनों भाइयों को बुरी तरह जकड़ लिया। प्रभु राम को बंधन मुक्त होने के लिये उसकी दोनों भुजायें काटनी पड़ी और तब वह बंधन मुक्त हो सके।

“काबंध” राक्षस की भी अपनी कहानी है। पूर्वकाल में वह गन्धर्वराज था, जो अत्यंत सुन्दर, आकर्षित यौवन से युक्त बलशाली पुरुष था। वह अपने यौवन से उन्मुक्त होकर संपूर्ण लोकों में विचरण किया करता था। एक बार उसका सामना महर्षि अष्टाबक्र जी से हुआ, जिनका शरीर विचित्र आकृति में बना था।

गन्धर्वराज ने उनके शरीर का परिहास करते हुए उनको अपमानित किया था। क्रोधवश महर्षि अष्टाबक्र महाराज ने उसे राक्षस होने का श्राप दे दिया था। उसी के फलस्वरूप गन्धर्वराज भयानक राक्षस योनी में आ गया।

अब तो उसे अपनी करनी पर बहुत प्रायश्चित होने लगा और वह ऋषिराज से मुक्ति के लिये क्षमा-याचना करने लगा। मुनी ने कहा कि ऋषि का दिया हुआ श्राप कभी वापस नहीं हो सकता, लेकिन इससे मुक्ति का उपाय बताता हूं। ऋषि अष्टाबक्र जी ने उससे कहा कि त्रेतायुग में प्रभु राम तुम्हारी भुजाओं को काटेंगे और तू श्राप मुक्त हो जायेगा। उन्ही की दया-कृपा से तेरा उद्धार होगा और वह तुम्हें अपने धाम में पहुंचा देंगे।

इस प्रकार “काबंध” राक्षस का उद्धार श्री राम द्वारा किया गया। वह प्रभु राम के चरणों में गिर गया और शरणागत हो गया। उसी के द्वारा प्रभु श्री राम को माता सीता की खोज में सहायक होने वाली “शबरी” के आश्रम (महर्षि मतंग जी) का पता चला। उसने प्रभु श्री राम से कहा कि शबरी ही माता सीता की खोज का मार्ग आपको बताएगी।

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“काबंध” को अपने परमधाम भेजकर प्रभु राम शबरी के आश्रम की ओर बढ़े। इधर नित्य की भांति प्रभु आगमन की शबरी पलकें बिछाये प्रतीक्षा कर रही थी। उसका व्याकुल मन प्रभु के स्मरण में सदैव विलीन रहता था। उसकी अंतरात्मा में प्रभु आगमन की झलक स्पष्ट होने लगी।

प्रभु आगमन का आभास होते ही वह अपने आश्रम मार्ग को पुष्पों से सजाने लगी, ताकि मार्ग में प्रभु के चरणों में कष्ट न हो। कितना प्रेमाभाव स्पष्ट हो रहा था? बहुत दूर से अपनी बोझिल आँखों से उसने प्रभु को कुटिया (आश्रम) की ओर आते हुये देखा धीरे-धीरे प्रभु के चरण पुष्पों पर पड़ने लगे। अब क्या था? शबरी प्रेम के भव सागर में डूबने लगी और भाव विहल होकर रुध्रा गले से प्रभु का स्वागत करने को आगे बढ़ी।

रामायण कि कहानी

उसके प्रेमाश्रु थमने का नाम नहीं ले रहे थे। प्रभु के समीप आते ही वह उनके चरणों में लिपट कर फुट-फुटकर रोने लगी। आज उसके गुरु का वचन यथार्थ में बादल गया था। भक्तवत्सल भगवान राम के चरण उसके आंसुओं से भींग गये थे। प्रभु ने अपने दोनों हांथो से अपने भक्त को उठाकर उसके आंसुओं को पौछा और खुद भी भाव विभोर हो गये।

प्रभु को अपने सामने पाकर वह बेसुध-सी निढाल हो गई थी, उसे अपने तन-मन का आभास भी नहीं था। उसके नेत्र प्रभु प्रेम रस का रसास्वादन कर रहे थे। उसके इस अनुपम हृदय की दीनता से प्रभु राम के नेत्रों से आँसू छलकने लगे।

उस समय भक्त और भगवान के मिलन का सुन्दर दृश्य देखते ही बनता था। ऐसा प्रतीत होता था कि युग-युगांतर से बिछड़े दो हृदय आपस में मिल रहे हो। प्रभु अपने इस भक्त की भक्त वत्सलता को देखकर अपने निज स्वरूप को भक्त में चमकते सूर्य की भांति देख रहे थे। दोनों ही धीरे-धीरे सामान्यत की ओर अग्रसर होने लगे।

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“शबरी” प्रभु राम-लक्ष्मण को अत्यंत सम्मानपूर्वक कुटिया के अंदर लायी और दोनों भाइयों के पग-पखारकर उच्च आसन पर सुशोभित किया। उनकी अर्चना आदि करके अपने भूखे प्रभु के समक्ष जंगल से तोड़कर लाये बेर रखे और एक-एक बेर चखकर मीठे बेर दोनों भाइयों को दिये।

लक्ष्मण जी ने शबरी के झूठे बेर लेकर वहीँ फेक दिये, लेकिन प्रभु राम ने उन बेरों को बहुत स्वाद से खाया, क्योंकि उसमे शबरी के प्रेमभाव स्पष्ट झलक रहे थे। इसके अतिरिक्त उस भीलनी के पास प्रभु को अर्पित करने के लिये कुछ भी तो नहीं था।

प्रभु राम ने उन प्रेम रस में डूबे मधुर बेरों को अत्यंत मुस्कुराते हुये खाया और शबरी की ओर निहारते रहे। बस, कुटिया में भक्त और भगवान के बीच प्रेम-भक्ति का सागर उमड़ रहा था। शबरी निहाल हो चुकी थी और उसको गुरु वचन याद आने लगे।

अपने प्रभु के आदर-सत्कार के उपरान्त शबरी ने उन्हें अपने गुरु महाराज महर्षि मतंग जी द्वारा बताया गया उपदेश विस्तारपूर्वक कहा। उसने कहा कि यधपि वह आपके दर्शन न कर सके, लेकिन उनकी दया-कृपा से मेरा जीवन धन्य हो गया। मैं अभागिन निम्न कुल में जन्मी समाज से तिरस्कृत, भीलनी जाती की निर्बल अवला, इस योग्य नहीं थी कि मुझे गुरु का सानिध्य प्राप्त होता और उनके आशीर्वाद व दया-कृपा से साक्षात प्रभु का दर्शन पा सकती।

अब शबरी पूर्ण रूपेण राममय हो चुकी थी उसकी भक्ति-भावना, प्रेम व गुरु आस्था, विश्वास से प्रभावित होकर प्रभु ने उससे कहा –

“स्त्री-पुरुष, जाती-धर्म, नाम और आश्रम आदि कोई भी मेरे भजन का कारण नहीं होता। मेरी अनन्य भक्ति करना ही कारण है अर्थात मेरी प्राप्ति का सहज व सरल उपाय मेरी भक्ति करना है। मेरी भक्ति से विमुख व्यक्ति यज्ञ, ज्ञान, तप अथवा वेदों से प्राप्त ज्ञान आदि विभिन्न कर्म करने के उपरान्त भी मुझ को नहीं प्राप्त होगा। मनुष्य केवल उक्त साधनों को करके अपने संस्कार, आचार-व्यवहार तथा सद्गुणों का संचय करता है। मुझे प्राप्त का एक मात्र साधन मेरी भक्ति ही है। “

सच्चा प्रेम – एक प्रेरक कहानी

अब मैं तुम्हें अपनी भक्तियों के सम्बन्ध में विस्कृत रूप से समझाता हूं, तुम ध्यान सहित सुनकर अपने हृदय में इसे धारण करो – भक्ति के नौ प्रकार होते है जिसको में तुम्हें विस्तारपूर्वक (in detail) समझा रहा हूं। इसमें से मनुष्य कोई भी एक प्रकार की भक्ति, श्रद्धा और विश्वास के साथ करता रहे, तो वह मनुष्य मुझको प्राप्त करेगा। 

  1. संतो का सत्संग
  2. मेरी कथा प्रसंग (context) में प्रेम का होना
  3. अभिमान रहित होकर गुरु की सेवा करना
  4. छल-कपट से दूर रहकर मेरे गुणों का ज्ञान करना
  5. मुझमे दृढ़ विश्वास रखते हुए, मेरे मंत्र का जाप करना
  6. इन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुये संतो की भांति आचरण करना 
  7. समस्त संसार को समभाव से राममय देखना और संतो को मुझसे अधिक सम्मान देते हुये स्वीकार करना
  8. जो मिल जाएउ सी में संतोष करना तथा दूसरे के अवगुणों को न देखना
  9. सरल स्वभाव से मेरा भरोसा करना और किसी भी अवस्था में हर्ष-विषाद का न होना

” शबरी ” तुम तो उपयुक्त भक्तियों के सभी प्रकार के साधनों से पूर्ण हो। निश्चय ही तुम परमगति की स्वामिनी हो। इसलिए तुम्हें वही गति प्रदान करता हूं जो योगियों को भी उपलब्ध नहीं होता है। मेरे दर्शनों का परम अनुभव फल यही है कि जीव अपने निज स्वरूप को प्राप्त कर मोक्ष (salvation) प्राप्त का अधिकार हो जाता है। 

प्रभु की दया-कृपा से ” शबरी ” को उनका उच्चधाम प्राप्त हुआ गुरु कृपा से उसका जीवन धन्य हो गया।

प्रभु ने शबरी को सीता के विषय में जानकारी देते हुए अपनी व्यथासे अवगत कराया। वन में सीता के अपहरण कर्ता का नाम व दिशा मार्ग जानने के लिये शबरी से सहायता पाने का अनुरोध किया। शबरी ने कहा प्रभु आपके सभी कार्य पूर्व से सिद्ध है, केवल आप मुझे सम्मान देने के लिये यह बात कह रहे है।

आप स्वयं त्रिकालदर्शी तथा सभी रहस्यों के ज्ञाता है। आपकी यह जिज्ञासा मानव धर्म के निर्वाह हेतु की गई है। आपकी आज्ञानुसार में इस सम्बन्ध में अपनी बात प्रस्तुत कर रही हूं। माता सीता को अपहरण करके लंकापति रावण छल-कपट व बलपूर्वक दक्षिण दिशा की ओर वायुमार्ग से ले गया है और इस समय माता सीता रावण के बंधन में बंधी हुई लंका राज्य में मौजूद है।

प्रभु ! पम्पा नामक मानसरोवर के निकट ऋष्यमूक पर्वत है, जिसकी गुफा में सुग्रीव नामक वानरराज अपने चार मंत्रियों सहित निवास करता है। आप वहां पहुँचकर उससे मिलें, वह आपसे मित्रता (friendship) करेगा। वह अत्यंत बलशाली, पराक्रमी (mighty) है तथा बाली का छोटा भाई है। वह अपने भाई बाली से बचने के लिये इस पर्वत की गुफा में रहता है।

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बाली भी स्वयं अत्यंत शक्तिशाली पराक्रमी वानरराज है जो कि एक ऋषि के श्राप से इस ऋष्यमूक पर्वत की गुफा में प्रवेश नही कर सकता। वानरराज सुग्रीव आपको माता सीता तक पहुंचा देंगे तथा रावण के साथ युद्ध में आपके सहायक होंगे।

इस प्रकार शबरी ने प्रभु राम को सीता की खोज में उचित मार्ग बतलाया और अपना सहयोग प्रदान किया।

शबरी ने प्रभु प्रभु राम को अपने गुरु द्वारा बताये गये दूसरे विषय के बारे में बताया। गुरु मतंग जी की इच्छा के अनुसार मैं आपके समक्ष अग्नि में समर्पित होकर अपना यह नश्वर शरीर भस्म कर दूँ और आपके चरणों में ही मेरा अंतिम क्षण व्यतीत हो। प्रभु आप मुझे यह अवसर प्रदान करके गुरु इच्छा की पूर्ति करने की कृपा करें। ताकि मैं अपनी अंतिम जीवन यात्रा करके आपके द्वारा प्रदत्त (given) परमधाम को पहुँच सकूँ। भगवान राम ने तथास्तु कहकर शबरी को गुरु आज्ञा का पालन हेतु आज्ञा प्रदान कर दी।

तदानुसार शबरी ने रामाज्ञा का पालन करते हुये स्वयं को अग्नि देव को समर्पित कर दिया। क्षणमात्र में वह प्रभु के दिव्य धाम में पहुँच गई और मोक्षपद प्राप्त किया।

इस प्रकार प्रभु राम ने ” शबरी ” को अपने निजधाम भेजकर अवला नारी का उद्धार किया और उसका अंतिम संस्कार विधि पूर्ण करते हुये वन में ऋष्यमूक पर्वत की ओर भाई लक्ष्मण सहित प्रस्थान किया।

धन्य है ऐसे महान संत गुरु महर्षि मतंग जी की गुरु भक्ता ” शबरी ” जिसने गुरु में समर्पित होकर प्रभु को साक्षात रूप में प्राप्त ही नहीं किया बल्कि उनके परमधाम पहुँचकर मोक्ष प्राप्त किया।

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