अपने बच्चे को गुरुजनों का आदर करना कैसे सिखाये?

आपका बच्चा जब तक किसी पब्लिक स्कूल, कॉलेज या किसी विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करता है, छात्र ही कहलाता है। क्या आपने कभी उससे प्रश्न किया है कि वह अपने गुरुजनों (teachers) का कितना आदर करता है? संभवतः नहीं।

कारण स्पष्ट है। आपके लिए इस प्रश्न का कोई महत्व नहीं है। आप बच्चे की शिक्षा पर अच्छा पैसा खर्च करते हैं, उसके बदले में आप केवल यह चाहते हैं कि आपका बच्चा परीक्षा में अच्छे अंक हासिल करे और आपके अधूरे सपनों को साकार करे।

उसे किसी प्रकार डॉक्टर, इंजीनियर या वकील बन जाना चाहिए, बस। शेष बातों से आपका कुछ लेना-देना नहीं। आपका इस बात से क्या सम्बन्ध कि आपका बच्चा अपने गुरुजनों का कितना आदर करता है। करता भी है या नहीं।

मैं सोचता हूं, ऐसा क्यों है? क्या हम लोग अपने देश की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को भूल गये हैं?

Bacche Ko Teachers Ki Respect Karna Sikhaye

क्या हम उस काल को भूल गये हैं, जब हमारे गुरुओं को अत्यंत आदर और श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था और यहाँ ताज कहा जाता था –

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय l
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दिया बताय ll

हाँ, ऐसा ही काल था वह, जब गुरुओं का स्थान हमारे लिए अपने माता-पिता और ईश्वर से भी ऊँचा होता था। हम नतमस्तक होते थे उनके सामने।

अपने बच्चे को गुरुजनों का आदर करना कैसे सिखाये?

उनके चरण छूकर हम अपने-आपको धन्य समझते थे। बदले में मिलता था – गुरु का आशीर्वाद

उस आशीर्वाद में गुरु की आत्मिक शक्ति मिली होती थी। उस समय गुरु की यही कामना होती थी कि उसका शिष्य कुछ बने और अपने माता-पिता का नाम उज्जवल करे।

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कहां गई वो कामना?
कहां गया वह आशीर्वाद?
क्यों इतने बदल गये हम?
क्यों भुला दिया हमने अपनी संस्कृति को?

कारण सिर्फ एक है। हम पश्चिमी सभ्यता (western culture) के रंग में रंग गए हैं। और ये तो आप जानते ही हैं न, पश्चिमी सभ्यता में गुरुओं की कामना और आशीर्वाद का कोई महत्व नहीं।

विडम्बना तो यह है कि हमने अपने बच्चों को भी यही सिखाया है। हमने उन्हें ये तो सिखाया है कि शिक्षा ही सब कुछ है। यदि वे अच्छी शिक्षा प्राप्त न करेंगे तो कुछ न बन सकेंगे।

हम अपने बच्चे को ऊँचे से ऊँचे पद पर देखना चाहते हैं। हम अपने बच्चे को बहुत बड़ा व्यापारी बनाना चाहते हैं। मगर हम उसे अच्छा मनुष्य बनाना नहीं चाहते।

यूं ही एक दिन प्राचीन संस्कृति और सभ्यता की बातें चली तो मैं एक मित्र से पूछ बैठा – ‘ क्या आपने अपने बच्चों को यह शिक्षा दी है कि उन्हें अपने गुरुजनों के पाँव छूने चाहिए?

नाराज़ हुए वे इस प्रश्न पर। बोले – ‘ कैसी बातें करते हैं आप? यदि मैं अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा दूँगा तो क्या उन्हें गंवार और पिछड़ा हुआ न माना जायेगा।

मगर हमारी संस्कृति – हमारी सभ्यता?

भूल जाइए इन दोनों शब्दों को। आज कोई जनता ही नहीं कि संस्कृति क्या होती है और सभ्यता क्या होता है। सभी माता-पिता अपने बच्चों को modern बनाने का प्रयास कर रहें हैं। और मैं तो कहता हूं, हमारे बच्चों को modern होना भी चाहिए।

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मैं modern के विपक्ष में नहीं हूं। पर हमें अपने बच्चों को इतना modern भी नहीं बनाना चाहिए कि इस चकाचौंध में वह अपनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को ही भूल जाए।

ठीक है, ऐसे माता-पिता अपने बच्चों को गुरुओं के पाँव छूने की शिक्षा नहीं दे सकते लेकिन वे अपने बच्चों को गुरुओं का आदर करने की शिक्षा तो दे ही सकते हैं।

किंतु आदर के स्थान पर अपमान और अशिष्टता।

बात पिछले वर्ष की है। मैं अपने एक मित्र के घर खाने का निमंत्रण था। उसी समय उनका बच्चा स्कूल से लौटा और कमरे में आते ही आक्रोश से बोला – ‘ पापा, मैंने आपसे पहले ही कहा था कि यह स्कूल अच्छा नहीं है, और वे maths के teacher, Mr Das! जी चाहता था कि उनका चेहरा नोंच लू। ‘

मित्र ने हँसते हुए बच्चे से पूछा – आखिर हुआ क्या

Monthly test में मुझे 10 में से 5 number दिये हैं।

कोई बात नहीं, मैं उनसे बात कर लूँगा। कहकर मित्र महोदय ने बात समाप्त कर दी।

मैंने मित्र से पूछा – क्या आपका बच्चा पढ़ाई में तेज नहीं है?

बच्चा तो पढ़ने में बहुत तेज है। पिछले exam में उसे अच्छे number मिले थे।

लेकिन इस test में?

बहुत से teacher बच्चों का मनोबल गिराने के लिए पक्षपात करते हैं। निश्चय ही उन्होंने शर्मा साहब के बच्चे को अच्छे number दिये होंगे क्योंकि वे उस बच्चे के tutor हैं।

बात मेरे समझ से परे थी। मैं नहीं मानता कि उस teacher ने ऐसा किया होगा। मेरे लिए मुख्य बात तो यह थी कि बच्चे ने अपने पिता के सामने अपने गुरु का चेहरा नोंचने को कहा था और मित्र महोदय हँसते रहे थे।

मैं समझता हूं, बच्चा यदि वास्तव में ऐसा कर बैठता तब भी वे हँसते रहते और संभव है, बच्चे से कहते – ‘ well done, अच्छा किया तुमने

ऐसे घटिया teacher के लिए यही सजा होनी चाहिए थी। और बच्चा ऐसा कर बैठता तो मेरी समझ के अनुसार इसमें मुख्य दोष उसके माता-पिता का होता।

बहुत से बच्चे अपने गुरुओं का आदर क्यों नहीं करते? मैंने यह प्रश्न को एक माता-पिता से किया तो वो बोले – ये सब तो बच्चों की इच्छा पर निर्भर है।

क्या माता-पिता का ये responsibility नहीं कि वे अपने बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दें?

आजकल के बच्चे स्वच्छंद प्रकृति के होते हैं। माता-पिता की शिक्षाओं का पालन वे करते ही कहां हैं।

मैं इस तर्क से सहमत नहीं। माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा दें तो ऐसा नहीं कि वे उसका पालन न करें। लेकिन शर्त यह है कि उन्हें खुद भी उन शिक्षाओं को अपने जीवन में उतारना चाहिए।

माता-पिता अपने बच्चों को बताएं कि उनके सामने में गुरुओं का कितना सम्मान दिया जाता है। वे बच्चों से बताए कि खुद अपने गुरुओं का कितना आदर करते थे।

बच्चे निश्चय ही माता-पिता की इन बातों से प्रेरित होंगे और उन्ही की तरह अपने गुरुओं का आदर करेंगे। इस विषय का एक दूसरा पहलू भी है।

बच्चे अपने गुरुओं का आदर क्यों नहीं करते?

मैंने यह प्रश्न एक शिक्षक से किया, तो वो बोले – इसके लिए जहाँ माता-पिता दोषी होते हैं, वहीँ कुछ शिक्षक भी दोषी होते हैं।

यहाँ मैं उन शिक्षकों की बात कर रहा हूं जो शिक्षा को व्यवसाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते। उनकी दृष्टि में शिक्षा दान एवं आशीर्वाद नहीं बल्कि व्यवसाय बन गया है।

उन्हें तो केवल अपने समय की कीमत चाहिए, जो उन्हें वेतन के रूप में मिलता है। उनकी शिक्षाऐं बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में कितनी सहायक हो रही है, इस बात से भी उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता।

अब बात आती है आदर एवं सम्मान की। आदर, सम्मान एवं श्रद्धा – मेरी समझ के अनुसार ये बातें भी शिष्टाचार के दायरे में ही आती है।

बच्चे ने यदि शिष्टाचार का पाठ पढ़ा है और उसे शिष्टाचार के नियम भली प्रकार सिखाए गए हैं तो ऐसा हो ही नहीं सकता कि वह अपने गुरुओं का आदर न करें।

लेकिन शर्त यह है कि खुद गुरुओं को भी नियमों का पालन करना चाहिए। यहाँ मैं अपने एक-दो साथियों का उदाहरण देना आवश्यक समझता हूं।

मैंने उन्हें कई बार अपनी class में धुम्रपान करते और बच्चों के प्रति अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते देखा है।

अब आप ही बताएं, बच्चे ऐसे गुरुओं का आदर करेंगे और उन्हें समुचित सम्मान दे सकेंगे?

शिक्षक महोदय के इस तर्क में कई बातें मुझे अच्छी लगी। बच्चे अपने गुरुओं का आदर करें।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि गुरुजन भी बच्चों को भरपूर स्नेह दें और शिक्षा को मात्र एक व्यवसाय मानने की भूल न करें। बच्चों को शिष्ट एवं सभ्य बनाने के लिए खुद उनका भी शिष्ट एवं सभ्य होना आवश्यक है।

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