लड़की की इज्जत कैसे करे? क्या करें?

सम्पूर्ण विश्वा में सायद भारत (India) एक मात्र ऐसा देश होगा जहाँ दुर्गा, काली, सरस्वती, गौरी की उपासना की जाती है। जहाँ भू देवी, श्री देवी, विद्या देवी, अम्बा, वैष्णो देवी, नंदा देवी, मनसा देवी, ज्वाला जी आने कितने ही अवतार रूपों में देवी की अर्चना, वंदना, स्तुति की जाती है।

पौराणिक कथाओं में शिव शक्ति के बिना शव है तो, राम सीता के वियोग में वन-वन भटकते रेअ अनुसुया, द्रोपदी, अहिल्या, तारा, गार्गी, लीलावती से लेकर लक्ष्मीबाई तक सबकी कथाएं हमारे हिन्दू परिवारों में मानो कंठस्थ है, फिर क्या करण है कि देवी की पूजा करने वाले देश में सड़को पर, दफ्तर में, बाजार में, यहाँ तक कि घर में भी देवियां सुरक्षित नहीं है।

क्या हमारा सभ्य समाज फिर से असभ्यता के समय की ओर चल रहा है। वैदिक युग में पुरुष और नारी के बीच identity नहीं equality यानि ऐसा तादातम्य स्तापित था, जिसमे बराबरी और समानता थी। बात अधिकारों की नहीं कर्तव्यों को बांटने की थी। शिव का अर्धनारिश्वा स्वरूप यही दर्शाता है कि पुरुष नारी के बिना अधूरा है।

नारी का सम्मान करें – Respect women

मनु-स्मृति के अनुसार गुरु को पिता का दस गुना आदर मिलता है, पिता को सौ गुना और माँ को हजार गुना क्योकि माँ प्रथम शिक्षक होती है। भारत में मात्रु देवो भव और पत्नी को देवी कहा जाता है। ” यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता ” यानि जहां नारी की पूजा (आदर) होती है, वहां देवता निवास करते है।

मनु-स्मृति में कहा गया है कि नारी का सम्मान पिता, भाई, पति सभी करे, यदि वे अपना कल्याण चाहते है, जहां नारी प्रसन्न नहीं वहां समृद्धि, खुशहाली कभी नहीं आती।

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वैदिक काल में बालक और बालिका दोनों का उपनयन संस्कार किया जाता था और दोनों के लिए शिक्षा अनिवार्य थी। फिर आया मुस्लिम विदेशी हमलों का आक्रामक युग जहां लूट, हत्या, नरसंहार, बलात्कार आए दिन के घटनाक्रम बने, हर हमले के साथ कत्लेआम होने लगा। यह उस युग की बात है जब बुद्ध और महावीर जगत को शांति और अहिंसा सिखा कर गए ही थे कि 1000-11 ई। में महमूद गजनी का पहला आक्रमण हुआ।

फिर 700 साल तक यही सिलसिला चलता रहा। गजनी, तुगलक, लोधी, अल्तमिश, फिरोजशाह, बाबर, हुमायूँ, अकबर, औरंगजेब, अब्दाली, नादिरशाह एक के बाद एक बाहरी ताक़तें भारत की ज़मीन पर राज करती रही, जिसकी नजर में औरत बराबरी की नहीं सिर्फ भोग की वास्तु मात्र थी।

इसलिए यहां आई ‘ परदा प्रथा ‘ ताकि घरों की स्त्रियों को हमलावरों से बचाया जा सके। इसी समय सती प्रथा भी प्रचलित हुई जहां आत्मसम्मान बचाने के लिए स्त्रियां जौहर कर लेती थी। मुगलों के बाद आए अँग्रेज़ और सदियों की गुलामी के करण भारत बेतोयों से घृणा करने वाला देश बन गया।

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अब हालात ये है कि आज़ाद देश में स्त्रियां ग़ुलाम ही है। देवी की पूजा करने वाला देश कन्या के गर्भ में आते ही उसकी हत्या कर देता है। क्या देवी मंदिरों के लिए है और पुत्र वंश चलाने के लिए?

समाज के दोहरे मापदंड के लिए जितना जिम्मेदार पुरुष वर्ग है उतना ही जिम्मेदार स्त्रियां भी है। माँ प्रथम शिक्षक है और अपने बेटे को वही उचित संस्कार के सकती है। गली-मोहल्ले, सड़क, बस जहां भी लड़के-लड़कियों से छेड़छाड़ करते है, परेशान करते है, तो समझिए अकुशल माँ नहीं सिखा पाई अपने बेटे को कि नारी का सम्मान करे। हां, समाज बदला है, हर युग में बदलता है।

स्त्रियां घरों से बाहर निकल पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही है, काम कर रही है, घर को आर्थिक योगदान दे रही है, पर कड़वा सच ये भी है कि परिवार बिखर रहे है। दिन-भर की थकी हारी महिला दफ्तर में खट कर जब घर लौटती है तो बेटे को नैतिक आचरण की शिक्षा देने का न तो दम ही बचता है न ही व्यावहारिक हौसला।

दिन भर बच्चे या तो टीवी से सीखते है या नौकरानी, आया से क्योंकि दादा-दादी वाले संयुक्त परिवार भी अब गिने-चुने ही रह गए है। तो बच्चों को सिखाए कौन?

समाज की नीव बच्चे, कल का भविष्य बच्चे, माँ का दायित्व बच्चे और माँ के बाद वह पत्नी ही होती है जो पति के स्वस्थ और दीर्घायु होने की कामना करती है। स्त्री का दायित्व परिवार और समाज दोनों के लिए पुरुष के मुकाबले कहीं अधिक बड़ा है।

समय आ गया है कि नारी अबला नहीं सबला का रूप ले और यह आंदोलन घर-घर से शुरू हो। स्त्री, हर स्त्री संभाले अपने पति को, भाई को, बेटे को और बनाए अपनी बहन, बेटी, बहु को सक्षम और समर्थ। तभी आएगी सामाजिक क्रांति जब बदलेगी पुरुष की सोच।

जिस नन्हे मुन्ने शिशु को गोद में सहलाया पुचकारा तो उसे यह शिक्षा की नैतिक ज़िम्मेदारी माता-पिता की है ताकि बड़ा हो कर उनका लाडला सड़को पर लड़कियाँ न छेड़े।

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