दोस्तों जिंदगी में कुछ ऐसी यादें होती है, जिन्हें हम भूलना चाहे तो भी भूल नहीं पाते है। आप सोच रहें होंगे कि मैं कौन से नई बात कह रहा हूं। क्या इन्सान यादों को कभी भूल सकता है?
उत्तर होगा नहीं क्योंकि यादें दो तरह की होती है एक अच्छी और एक बुरी। अच्छी यादों को जब हम याद करते है तो हमारा मन अंदर से प्रफुल्लित हो जाता है और हम उन्ही यादों में डूबे रहना चाहते है लेकिन ठीक इसके उलट ख़राब यादें हमे अंदर तक झकझोर देती है। यानि ख़राब यादें भी हमारे यादों में ठीक वैसी ही बैठ जाती है जैसे अच्छी यादें।
लाख कोशिशों के बाद भी यह ख़राब यादें हमारा पीछा नहीं छोड़ती है।
मेरे बातों को आप शायद समझ नहीं पा रहे है। दोस्तों में उस घटना का जिक्र कर रहा हूं, जिसके बारे में जानकर और देखकर हम सब की रूह कांप गई थी। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूं 8 दिसम्बर 2012 निर्भया गैंग रेप कांड की, जिसने पूरे देश को ना सिर्फ हिला कर रख दिया था, बल्कि आक्रोश की ज्वाला पैदा कर दी थी।
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मैं जब भी इस घटना के बारे में सोचता हूं तो आज भी मेरा मन दहशत से यह सोचकर कांप उठता है कि निर्भया ने ऐसी कौन सी गलती की थी, जिसकी जिंदगी को कुछ दरिंदो ने चंद मिनटों में खत्म कर दिया। माना वो दरिंदा आज जेल की सलाख़ों के पीछे है, जिनमें से एक ने जेल में आत्महत्या कर ली थी।
बाकी आरोपियों को अदालत के दोषी मानते हुए मौत की सजा सुनाई। लेकिन उनमें से एक नाबालिग अपराधी भी था, जिसके अपराध और सजा को लेकर कश्म्कस आज भी जारी है।
इसी वजह से Juvenile Justice Act में बदलाव को लेकर एक नई बहस शुरू हो गई है। महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी की माने तो इस जघन्य अपराध के मामले में नाबालिग अपराधी को बालिग अपराधी माना जाना चाहिए और देश की सर्वोच्च अदालत ने भी नाबालिग क़ानूनों पर फिर से विचार का सुझाव दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि हत्या और बलात्कार जैसे अपराधों में नाबालिग अपराधियों को जो छूट मिल जाती है वो नहीं मिलनी चाहिए। अभी तक 18 साल से कम उम्र के आरोपियों को नाबालिग माना जाता है और उसे किसी अपराध में दोषी पाए जाने पर ज्यादा से ज्यादा तीन साल की सजा का प्रावधान है।
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मगर दिल्ली के निर्भया कांड के बाद नाबालिग की उम्र नहीं उसके अपराध को देखते हुए उसकी सजा निर्धारित करने की बात कही जा रही है। क़ानूनन यह सही है।
आंकड़े बताते है कि नाबालिग किशोर जिनकी उम्र 16 से 18 साल के बीच है, उनके द्वारा किए गए अपराधों की संख्या में पिछले एक दशक में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों को देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपराधों की श्रेणी में नाबालिग किशोर का आंकड़ा कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है और मेरे हिसाब से इसे खत्म करने के लिए जरूरी है कि अपराध और आरोपी की उम्र को लेकर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए।
अपराध के अनुसार किशोर चाहे नाबालिग हो या फिर बालिग उसको सजा दी जानी चाहिए। मेरे इस कथन से हो सकता है कि कई लोग व बाल अधिकार कार्यकर्ता सहमत न हो क्योंकि उनका मानना है कि कानून का उद्देश्य नाबालिग अपराधी को कठोर सजा देना नहीं बल्कि उसे सुधारना है।
कानून मानता है कि नाबालिग अपराधी को कड़ी सजा देकर हरगिज सुधारा नहीं जा सकता है। पर मैं उनसे एक बात पूछता हूं कि वो यह बताएं कि इस अपराध की सजा क्या होना चाहिए? क्या बच्चे को सुधार कर आप उसे इस अपराध को रोक सकेंगे। जी नहीं, अगर हम उन्हें नाबालिग साबित करते है तो वह उस समय नाबालिग नहीं होता जब वो इस अपराध का हिस्सा बनते है।
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अपराध के समय उनकी उम्र कहां चली जाती है? सबसे बड़ी बात यह है कि जघन्य अपराधों को अंजाम देने वाला कोई भी व्यक्ति दिमागी रूप से कमजोर हो नहीं सकता क्योंकि 16 साल की उम्र में किशोर का दिमाग परिपक्व हो जाता है, जो एक बड़े से बड़े अपराध को अंजाम दे सकता है।
माना हर अपराध के लिए सजा अलग होती है, पर कुछ ऐसे अपराध होते है, जिन्हें रोकने के लिए कानून को कुछ कठोर कदम उठाने होंगे क्योंकि इनके बिना अपराध ख़त्म नहीं हो सकते। आखिर में ये कहूँगा बलात्कार कि हत्या आदि जैसे गंभीर अपराधों को उम्र व लिंग के आधार पर ना जोड़ते हुए अपराध को अपराध माना जाए और सख्त सजा दी जाए। इस बारे में आपकी क्या राय है?