मानव जीवन में अनंत समस्याएं छिपे है, आवश्यकता है इन्हें अपने में प्रकट करने की। सफलता कहीं बाहर से नहीं आएगी, जीवन में सफलता लाने के लिए किसी बाहरी सहायता की आवश्यकता नहीं है केवल आवश्यक है, अपने अंदर छिपे अपार क्षमताओं को प्रकट करने की।
सफल से सफल व्यक्ति भी क्षमताओं का दस प्रतिशत (10%) ही प्रकट कर पाता है। अपनी क्षमताओं को प्रकट करने के लिये आवश्यक है हम काल, कर्म तथा बुद्धि का समुचित उपयोग करें। काल से मेरा अभिप्राय समय है। समय की ठीक पहचान हो।
आप जानते है लोहा जब सुर्ख़ लाल होता है तभी लोहार उससे कुछ भी बना सकता है। समय के तीन चरण होते है – भूत काल, वर्तमान काल तथा भविष्य काल। भूत काल जो समय व्यतीत हो गया, भविष्य काल जो आने वाला है तथा वर्तमान जो मेरे सामने है।
अक्सर हम भूत और भविष्य में ही जीते है। या तो हम अपने भूत काल की कथा कहते रहते है या भविष्य के लिए कल्पनाएँ बनाते रहते है। सारा जीवन का समय इस भूत और भविष्य की चिंता में ही व्यतीत हो जाता है। वर्तमान कब निकाल गया इसका भान भी नहीं होता। काल का चक्र बड़ी ही तेजी से घूमता है। बड़ी तेजी से भविष्य भूत होता चला जाता है। वर्तमान तो कुछ क्षण का ही हो पता है।
भूत अनंत है, भविष्य अनंत है जैसे एक सिनेमा की रील। सिनेमा की रील तीन भागों में विभक्त है। एक ओर से आ रही है, दूसरी ओर इकट्ठी हो रही है। एक ओर जिधर से आ रहा है उधर अभी बहुत रील बची है यह मेरा भविष्य काल है, दूसरी ओर बहुत सी इकट्ठी हो गई वह मेरा भूत काल है लेकिन बीच के भाग में उस रील पर प्रकाश की एक किरण पड़ रही है और उस प्रकार की किरण के करण उस रील में छिपा रहस्य मेरे सामने पर्दे पर आ रहा है यह मेरा वर्तमान है। आप पर्दे पर देख रहे है चित्र बड़ी शीघ्रता से बदलते जाते है।
बड़ी तेजी से भविष्य भूत होता चला जा रहा है वर्तमान तो पर्दे पर आते चित्र है जो बड़ी तेजी से बदल रही है। यदि मैं इस छोटे से क्षण में सतर्क नहीं रहता तो वे चित्र मेरे सामने से निकल जाते है, उस पर्दे की कहानी मैं पूरी तरह समझ नहीं पाता।
दूसरों से पूछता हूं कि भाई मैं बीच में देख नहीं पाया क्या हुआ। यह तेजी से बदलते दृश्य ही मेरा वर्तमान है। इसी पल भर के वर्तमान में सफलता का राज़ छिपा है। जो सतर्क होकर वर्तमान में जीते है वे सफलता प्राप्त कर संसार में यश प्राप्त करते है ।
अब प्रश्न आता है कर्म क्या है?
मेरा जन्म प्रकृति और आत्मा के मिलन से हुआ है। मेरे जीवन के दो घटक है आत्मा और प्रकृति, आत्मा में सतोगुण (truth quality) प्रधान है इसलिए दोनों आत्मा और प्रकृति का संयोग होता है तो जीव की उत्पत्ति होती है जब आत्मा के गुण सत् (truth) तथा प्रकृति के गुण तम (darkness) का संयोग होता है तब रजोगुण (sage quality) का प्रकटीकरण होता है।
सत् में क्रिया नहीं है, तम में क्रिया नहीं है दोनों शांत है। एक ज्ञान में शांत है, एक अज्ञान में शांत है लेकिन रज (sage) में क्रिया है। आत्मा और प्रकृति से संयोग से जीव बना, उसके साथ ही साथ सत् और तम के रज से संयोग बना। रज में क्रिया है। जीव के जन्म से ही क्रिया का साथ मिलता है। इसलिए क्रिया जीव की सहज प्रकृति बन जाती है।
जैसे हम देखते है एक छोटे बच्चे का सहज स्वभाव हाथ पैर चलाना है। यह सहज क्रिया है। लेकिन यही सहज जब मेरी बुद्धि से जुड़ती है तो यह क्रिया निस्वार्थ न होकर स्वार्थमय हो जाती है तब इसे कर्म कहते है। जैसे बालक कोई वस्तु देखता है तो उसे लेने का प्रयास करता है। अब वह सहज क्रिया हाथ पैर चलाने की न रहकर, उस वस्तु को प्राप्त करने की हो जाती है।
जब तक सहज क्रिया तब तक कोई भी कर्म का संस्कार नहीं बनता। जहाँ से सहज क्रिया में क्रत्तापन आया वहीँ वह कर्म हो गया। और वहां से ही कर्म का संस्कार बनना प्रारंभ हो जाता है। ये संस्कार ही हमारे जीवन में दुख, सुख, शांति, अशांति तथा जन्म, मरण के कारण है। भगवान कृष्ण भी गीता यही उपदेश करते है कि कर्म तो करो, लेकिन इस प्रकार से करो कि उसका संस्कार न बने। अर्थात सहज कर्म हो।
प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने के कारण जीव में प्रकृति का संग दोष लग गया है। अब उसके काल कर्म और बुद्धि का स्वरूप बदल गया है। प्रकृति के संग दोष से पहले वह आत्मस्वरुप था न भूतकाल था न भविष्य काल था वहां केवल मात्र वर्तमान काल ही था। विशाल वर्तमान जहाँ कर्म के साथ संस्कार नहीं थे केवल मात्र सहज कर्म ही था। ज्ञान के स्थान पर विवेक था।
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प्रकृति में अल्पज्ञता है प्रमाद है। जीव के प्रबल शत्रु अल्पज्ञता एवं आलस्य ही है। इसलिए आवश्यक है हमारा यह प्रकृति का संग दोष छूट जाए। यदि प्रकृति का संग दोष छूट जाए तो हमारा कार्य क्षेत्र विशाल होगा। सारा वर्तमान हो होगा। कर्मों के संस्कार नहीं बनेगे अत: न दुःख होगा, न अशांति होगी, न जन्म होगा, न मृत्यु, न मोह रहेगा, न ममता, निर्णय करने की क्षमता बढ़ेगी।
गीता में अर्जुन मोह, ममता तथा अनिर्णय की समस्या से ही ग्रसित है। भगवान कृष्ण उसे गीता का ज्ञान देते है, विराट दर्शन कराते है तब भी न मोह हटता है न ममता न वह निर्णय कर पा रहा है कि मैं क्या करूँ?
क्योंकि जब तक प्रकृति का संग दोष है तब तक इन समस्याओं का निस्तारण संभव नहीं हो सकता। पुर्नधर्म का पालन नहीं हो सकता। स्थूल में हम शरीर-धारी है हमारा धर्म है हिन्दू, मुस्लिम आदि तथा प्रकृति के संग दोष से हमें अविधा, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश हम में भरा है परन्तु मैं इतना ही तो नहीं हूं।
मैं सूक्ष्म भी हूं, करण भी हूं अत: स्थूल के साथ-साथ सूक्ष्म तथा करण का भी धर्म निर्वाह हो तो मेरा पूर्ण धर्म का पालन हो। सूक्ष्म में हम जो कुछ भी देख रहे है वह ‘जीव’ है। जीव की परिभाषा क्या है? जीव वह जो पूर्ण प्रणव का पालन करता है अर्थात जो आता है, रहता है तथा समाप्त होता है वह जीव है।
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वह चाहे जड़ हो या चेतन हो। जीव की उत्पत्ति उस पूर्ण से ही है। ईश्वर अंश जीव अविनासी उसका धर्म वचन है ‘ चेतन, अमल, सहज सुखरासी ‘ ईश्वर अंश होने पर भी जीव में प्रकृति इस तरह घुली है कि उससे अलग होना संभव ही नहीं प्रतीत होता। महात्मा गोस्वामी जी ने लिखा है –
देखिअ, सुनिय, गुनिय मन माहीं l
मोह मूल परमारथ नाहीं ll
मैं जीव हूं, जहाँ मेरी देखने, सुनने तथा विचार करने की क्षमता है वहां तक प्रकृति ही प्रकृति है। आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है? वह सब मेरी क्षमता से परे है, फिर कैसे इस प्रकृति से असंग होकर आत्मा से जुड़े? महर्षि पतंजलि ने इसका समाधान किया कि किसी वीतराग पुरुष से अपना संपर्क कर लो।
वह स्थूल में हमारे समान ही शरीर धारी है लेकिन फिर भी वह स्थूल, सूक्ष्म और कारण से प्रकृति से असंग तथा आत्मा से जुड़ा है। ऐसे व्यक्ति की पहचान है जिसके पास बैठने से हमारा मन शांत होने लगता है। उसका संग करते-करते हमारा भी मन शांत होता जायेगा तथा बड़ी सहजता से हम भी स्थूल और कारण में प्रकृति से असंग हो आत्मा से जुड़ जायेंगे।
प्रकृति का संग दोष मिट जायेगा। आत्मा का संग हो जायेगा। आत्मा का संग होते ही मुझमे विशालता आ जाएगी जीवन में कर्मठता आ जाएगी। कर्मो के संस्कार नहीं बनेंगे पांचो क्लेश शांत हो जायेंगे। जीवन का श्रेयस प्राप्त हो जायेगा।