आज कल के Newly Educated GENTLEMAN कहने लगते हैं कि नाम में क्या रखा है, कहीं मिठाई कहने से मुंह थोड़ी ही मीठा हो जाता है ? हम इसे अपने भाईयों से कहेंगे कि ज़रुर मिठाई के नाम लेने से मुंह नहीं मीठा होता, लेकिन खटाई और खटाईयों में भी ‘ निम्बू ‘ का नाम लेने पर तुम्हारा मुंह में क्यों पानी छुटने लगता है। यदि नाम में कोई प्रभाव नहीं था तो कंठ कूप (salivary glands) ने क्यों पानी छोड़ा और वह कैसे तुम्हारे मुंह तक आया। इसका कारण है और वही हम आपको नीचे समझाते हैं –
नाम का महत्व कितना जरुरी है?
तुम्हारा नाम लेके यदि तुम्हें कोई पुकारे तो तुम क्यों बोलने लगते हो? तुम्हारे बाप (father) का नाम लेके यदि कोई गाली देने लगे तो तुम्हें क्यों क्रोध आ जाता है? किसी ऐसी युवती (की जिसे तुम प्यार करते हो) का नाम लेने पर तुम्हारे रगों में क्यों बिजली दौड़ जाती है? महाराणा प्रताप का नाम लेते ही तुम्हारी भुजायें क्यों फड़कने लगती हैं? और क्यों वीर रस में भर जाते हो? श्री मीरा का नाम सुनते हो तुम्हारे हृदय सागर में क्यों प्रेम तरंग उठने लगती है ? इत्यादि..
ये भी जाने- जीवन के निर्माण में “आशा” का महत्त्व
सोच और समझो ! यह करिश्मा नाम ही ने तो दिखाया। और सुनो –
मैंने गुलाब के फूल का नाम लिया और तुम्हारे अंदर गुलाब का नक्शा (picture) खींच गया। गाय का नाम लेने पर गाय, घोड़े का नाम लेने पर घोड़ा, वृक्ष का नाम लेने पर वृक्ष, चिड़िया का नाम लेने पर चिड़िया की सूरत तुम्हारी आँखों के सम्मुख नाचने लगती है या नहीं ? यह सब नाम ही का प्रभाव है। इसी प्रकार भगवान का नाम लेने पर उनका स्वरूप तुम्हारे नेत्रों में आ सकता है।
जिस व्यावहारिक जगत में तुम रह रहे हो उसमे दो ही चीजें ‘ नाम ‘ और रूप व्यापक होके हर समय अपना काम करते रहते हैं। तुम्हारे अंदर भी यह है और दुसरो में भी। तुम चाहे जितनी कोशिश करो इनके असर से बच नहीं सकते।
नाम के साथ रूप है और रूप के साथ नाम। एक ही ओर झुकते ही दूसरा खुद आ जाता है और यही रूप अपना गुण देके मनुष्य को अच्छा या बुरा बनाता है। अच्छे या संत पुरुष के चिंतन से शुभ गुण मनुष्य में आते है और बुरे और दुष्टाचारी के ऊपर ख्याल करते रहने से दुष्ट वासनाओं का उदय होता है, मनुष्य दोषी बनता है।
वेदों का प्रमाण है – ‘ तंयथा उपासते त देव भवति ‘ अर्थात जो जिसका ध्यान रखेगा वैसा ही बनेगा। जब ऐसा नियम संसार में चल रहा है तो भगवान का नाम लेने से भगवान गुण मनुष्य में नहीं आयेंगे, ऐसा हो नहीं सकता। भगवान ‘ सत ‘ (truth) है वह प्रकाश स्वरूप है उनमें अपार ज्ञान है, वह दयामय है, उनके चिंतन से यह गुण मनुष्य में आ सकते हैं, और यह चिंतन नाम लेने पर ही हो सकता है।
भगवान के निरंतर ध्यान से मनुष्य में तेज आता है उनमें दया और प्रेम का संचार होता है। उसका ज्ञान बढ़ता है। वह मिथ्या आडंबर को त्याग के सत्पुरुष बनता है। उसके अशुभ कर्म छूट जाते हैं और वह कमल के फूल की तरह जगत में रहता हुआ जगत के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह सब नाम ही रहता है। नाम न लेते तो रूप आता और न यह गुण आते।
जरुर पढ़ें- वाणी पर नियंत्रण कैसे करें? आवाज पर काबू कैसे करे?
वैदिक भाषा में ‘ नाम ‘ को ही ‘ शब्द ‘ कहते है। उपनिषदों ने शब्द को ‘ ब्रह्म ‘ कहा है। संसार की स्थिति भी इसी के आधार पर है। जब शब्द का अंत होगा इस विश्व का भी अंत हो जायेगा। शब्द को पकड़ के महापुरुष सबसे ऊँचे आत्मिक स्थान ‘ ध्रुपद ‘ तक पहुंचे थे। रूप से प्रथम शब्द प्रकट हुआ था। इसी को प्रणव कहा गया है।
अनेक नाम इसी प्रणव के सूचक है। लक्ष्य ठीक होना चाहिए, नाम कोई भी लो, इससे कोई विघ्न नहीं पड़ता। मनुष्य नाम के सहारे वहीँ पहुँच सकता है कि जो उसका अंतिम उद्देश्य है और जहाँ से आगे कुछ भी नहीं है। नाम को मनुष्य सुन-सुना के भी ले सकता है। पुस्तकों में भी अपने लिये कोई नाम छांट सकता है, परन्तु जो लाभ गुरु के बताए हुए नाम में मिलता है वह इस प्रकार नहीं मिलता। इसका भी कारण है, हम यहाँ थोड़ा-सा इस पर प्रकाश डालते हैं –
गुरु शब्द से हमारा तात्पर्य उन पेशेवर लोगों से नहीं है कि जिन्होंने स्वार्थ के लिए चेला बनाने और कान फूंकने का रोज़गार कर रखा है। गुरु वास्तविक में उस महापुरुष को कहते हैं कि जिसके अंदर आत्मबल हो, जो दया और प्रेम का भंडार हो, जिसके रूहानी मकामात (आत्मिक चक्र ) खुले हुए हों, जिसकी शक्ति जाग्रत हो चुकी हो और पूर्ण अनुभवी ज्ञान प्राप्त कर चुका हो।
ऐसा संत जब गुरु बनके उपदेश देता है, कोई विधि बतलाता है तो उसके साथ ही साथ कुछ शक्ति भी देता है। उसकी प्रेममयी धारें मंत्र के साथ ही साथ शिष्य में प्रवेश होती है और उनकी ठोकर से शिष्य के दबे हुए संस्कार जाग्रत हो उठते हैं।
ये भी जाने- सीखना कभी न छोड़े- ज्ञान कि बातें
अंधकार हृदय से हटता है और ज्ञान का उज्ज्वल प्रकाश उसमें जगमगाने लगता है। आगे शिष्य का काम रहता है कि वह अपने प्रयत्न से उसकी रक्षा करे। गुरु के जलाये हुए दीपक को बुझाने न दे। बताई हुई क्रिया से उसमें तेल बत्ती पहुँचाता रहे ताकि एक न एक दिन वह अधिक तेज से प्रज्वलित कर अंतिम ध्येय तक पहुँचा दे।
मनुष्य जब किसी वस्तु का नाम लेता है तो नाम के साथ ही साथ उसके रूप का नक्शा नाम लेने वाले के हृदय में खींचता है, फिर जिस मनुष्य को वह उस नाम को सुनाता है उसमें उसका focus आता है और वैसे ही शकले उसके दिल में बन जाती हैं।
महापुरुष के हृदय पट पर मैल (dirt) नहीं होते इसलिए सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तु का भी रूप उसमें साफ आ जाता है, यहाँ तक कि भगवान का रूप भी जो अति सूक्ष्म है पूर्ण रूप से उनके अंतर दिखाई देता है। जब वह शिष्य को उपदेश देते हैं तो अपनी शक्ति द्वारा शिष्य के मेलों (dirt) को हो हटाकर उस रूप को उसके अंदर प्रवेशकर देते है।
इस प्रकार नाम के साथ रूप जल्दी मिल जाता है और यही रूप कल्याण करता है खाली नाम जपते रहने से कुछ नहीं होता। जाप के समय रूप अवश्य होना चाहिए। ‘ नारायण ‘ नाम हम तुम सभी ले सकते हैं परन्तु ‘ अजामिल ‘ को पूर्ण गुरु द्वारा मिला हुआ नाम उसका उद्धार कर गया।