कबीरदास जी का कहना है कि – “उल्टी-सीधी बोली, हंसी-मज़ाक, अहंकार, माया और स्त्री संग यह सब संतो के काम नहीं है”। कबीरदास के इस शब्दों को लोगों ने अपने मन में संजोयकर रखा है। उनका कहना है कि हमें संत बनना नहीं है, संत बनेंगे तो गृहस्थी (family) कैसे चलेगी, इसलिए तीखा बोलना, किसी को मान्यता नहीं देना, सभा-सोसाइटी में जोर से बोलना और सबके सामने किसी को डांट देना, अपना फर्ज समझ लिया है।
वाणी पर नियंत्रण कैसे करें? आवाज पर काबू कैसे करे?
उनका सोचना है कि यह किसी का अपमान थोड़े ही है यह तो सत्य है वह उसी के लायक है। यह सब व्यवहार क्या है? क्या अभिमान नहीं है? क्या यह अहं का प्रतीक नहीं है? क्या यह उस व्यक्ति के आत्मस्वाभिमान को ठोकर मरना नहीं है? जो अपने कर्म से कुछ भला करना चाहता है, लेकिन अभिमानी व्यक्ति अपने आपको सर्वोच्च समझकर अपनी विनयशीलता खो बैठता है।
संभव है उसकी ठोकर उस समय तो कुछ उसकी आज्ञा पालन करवा दे लेकिन यह निश्चित है कि ठोकरें केवल धूल उड़ा सकती है परन्तु फसल नहीं उगा सकती।
जिस व्यक्ति को अपमान भरे या तीखे शब्द कहे जाते है वे उसके दिल के तारों को झंकझोर देते है एवं जहरीले तीरों के वार से ऐसे घाव पैदा करते है जो नश्तर बन जाते है एवं मन ही मन अलगाव पैदा करते है। द्रोपदी के वचनों ने महाभारत को जन्म दिया है। इसलिए शब्दों पर नियंत्रण अति आवश्यक है।
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प्रकृति का अटूट नियम है कि जो हम देंगे वही हमें मिलेगा, जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे। जो अग्नि पर बर्तन में पकाने के लिए रखेंगे वही तो भोजन तैयार होगा। हम दही में शक्कर डालेंगे तो दही मीठी होगी और नमक डालने पर नमकीन।
सीधी सरल बात मनुष्य भूल बैठा है। वह हर समय अपने आपको सबसे बुद्धिमान एवं समर्थ समझकर ऐसे-ऐसे कार्य करता है जो सोच और समझ से दूर है।
सोचें जरा ऐसा क्यों हो रहा है? सभी इंसान बराबर है फिर एक को शरबत एवं एक को पानी भी नसीब नहीं। एक चरित्र खोकर सुख के सब साधन जुटा रहें है एवं दूसरा अपने चरित्र के नाम पर भूखा मर रहा है, कर्ज ले रहा है कैसी विडम्बना है। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि हर एक कण उसके लिए फुल बन जाए लेकिन वह अनेकों के लिए बदले की भावना लिए बैठा है।
चाहता है कि हर एक जर्रा शगूफा (bubble) बन जाए और खुद के दिल में खार लिये बैठा है। जब व्यक्ति के दिल में खार या नीचता है तो व्यवहत में स्थायी प्रेम कैसे झलकेगा? जो दिखेगा वह केवल दिखावा होगा। जल्दी ही अगले व्यक्ति को नजर आएगा कि जो वह है, नहीं है और जो है उससे सावधान रहने की आवश्यकता है। फिर भी व्यक्ति दोहरा चेहरा लिए घूमते है अपना उल्लू सीधा करते है। जीवन की राह इस प्रकार पकड़ ली है कि छुटाएं नहीं छूटेगी।
इस दोहरे चेहरे के अभिमान से तीखे बोलने से अपमान करने की प्रवृत्ति से छुटकारा लेने की एक ही दवाई कबीरदास जी ने बताई है वह है प्रेम।
हमने संसार के सभी रसायनों को पीकर देखा है, परन्तु प्रेम रसायन के समान कोई भी नहीं है, क्योंकि इसका स्वाद अलौकिक है। मन में मात्र थोड़ा सा प्रवेश करने पर सारा तन शुद्ध स्वर्ण की तरह पवित्र और खुशहाल हो जाता है।
जब किसी से प्रेम करते है तो एक अलग सी भावना दिल में पैदा होता है कि उसको प्रसन्न करें। मैं और मेरा की जगह तू और तेरे का विचार मन में उत्पन्न होता है। ऐसे भावना उत्पन्न होना सहज नहीं है। कभी कभार ऐसा विचार उत्पन्न भी हो जाए तो अहं का शेतान उस विचार को बाहर फेंक देता है। यही कारण साधारण व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं को अपनी गलत भावनाओं को या अपनी गलत आदतों को छोड़ नहीं पाता।
ईश्वर भजन से आदतें बदल जाती है लेकिन यह अहं की बीमारी जितनी माला फेरो उतनी बढ़ती है। इस बीमारी का इलाज उपासना द्वारा संभव है ऐसी उपासना जो समर्थ गुरु की कृपा से उनके सानिध्य पर पूर्ण विश्वास करने से होता है।
जो मनुष्य तीस-तीस घंटे की माला और पूजा करता हो और आदतें न बदले तो उसका भजन करना बेकार हो जाता है। व्यवहार शुद्ध नहीं। व्यवहार ही परमार्थ की कसौटी है। जिस साधू महात्मा का व्यवहार अच्छा हो वही महात्मा है, जिसका अच्छा नहीं, वह सिद्ध हो सकता है महात्मा नहीं।
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सत्संग करने से व्यवहार बदलता है शर्त यह है कि वह व्यक्ति वास्तव में सत्संग करे लेकिन वास्तव में सत्संग करने एवं प्रार्थना करने से गुरु-शक्ति की सानिध्यता मिलते हुए एक गुप्त प्रेरणा मिलती है अपने आपको बदलने की।
सत्संग में केवल एक सिटींग (sitting) करने से अगर शराबी शराब छोड़ देता है और केवल सत्संग की क्रिया सीख कर एक माह में माँस खाना छोड़ सकता है तो क्या उसकी वाणी (voice) पर नियंत्रण (control) नहीं हो सकता? उसके क्रोध पर नियंत्रण नहीं हो सकता है?
अगर कोई करना चाहे तो। लेकिन उन गुप्त प्रेरणाओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता केवल वह अपनी प्रतिष्ठा के मद में डूबा रहता है तो गुरु क्या करे। गुरु अपनी शक्ति प्रेषित कर सकता है साधक चाहे तो उसको स्वीकार करे चाहे तो नहीं करे।
इसीलिए अंतर्मन में सूक्ष्म द्रिष्टि से खोज आवश्यक है, बार-बार पार्थना करना आवश्यक है, तभी मुहं से शीतल वाणी निकल सकेगी। सबसे मीठा बोलना एवं सबका भला चाहना ईश्वरीय गुण है। कोई मनुष्य तुम्हे कठोर शब्द कहेगा तब भी तुम उसे बर्दाश्त करना क्योंकि ये तुमसे छोटा है। मान अपमान की परवाह किये बिना सच्ची सरल भाषा में मीठी वाणी में बोलने का संकल्प लेने से ही कुछ गुरु आज्ञा का पालन हो सकेगा।
वाणी ऐसी बोलिये मन का आपा खोय l
औरन को शीतल करे खुद भी शीतल होय ll