एक बार शंकराचार्य जी यात्रा पर जा रहे थे। तो उन्होंने एक गांव के किनारे देखा कि एक भक्त गीता सामने रखे रो रहा है। अश्रुधार बह रही है। कौतुहलवश वह वहां खड़े हो गए तो उन्होंने देखा कि बीच में वह गीता के श्लोक भी बोलता है परन्तु इस तरह से जैसे उसे संस्कृत नहीं आती।
बहुत देर खड़े रहे। जब उस भक्त को होश आया तो उन्होंने पूछा कि ‘आपको संस्कृत नहीं आती, यह मैंने आपके उच्चारण से ज्ञात किया और जब संस्कृत नहीं आती इस श्लोक का अर्थ भी नहीं आता होगा, फिर यह अश्रुधार आपके कैसे बह रहे है ?’।
तो भक्त ने जबाब दिया कि मुझे, आप सच कहते हैं, न संस्कृत आती है न इन गीता के श्लोकों का अर्थ आता है, परन्तु जब मैं इसको लेकर बैठता हूं तो मुझे भगवान कृष्ण दिखाई देता है जो उस समय गीता का उपदेश कर रहे थे। और उनको देख-देखकर ही मैं रोता रहता हूं।
शंकराचार्य ने उसके पैर पकड़ लिये बोले आप धन्य है। सच यही है कि भाव से ही भगवान या गुरु आते है। वह है, सब जगह, परन्तु जो भाव से उनको याद कर सकता है उसी के सामने वे बैठे हुए है।
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