एक अंधा बोलता है- Ek andhe ki kahani: कौन कहता है कि पंगुता (अपंग) व्यक्ति को दयनीय बना देती है? अगर कुछ बनाने कि लगन हो तो व्यक्ति अंधा होने पर भी अपनी मंजिल पर पहुँच सकता है। “जहाँ चाह, वहाँ राह” इस कहावत को मैंने पूरी तरह चरितार्थ किया है।
बचपन से नौ साल तक मैंने दृष्टि सुख पाया था। पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेल-कूद तक मेरी प्रतिभा सबको विस्मित कर देती थी। दस वर्ष की उम्र में चेचक के भयंकर प्रकोप ने मेरे नेत्रों कि ज्योंति छीन ली। माता-पिता का हृदय हाहाकार कर उठा। उन्होंने डॉक्टरी उपचार से लेकर झाड़-फूंक तक सारे उपाय किए, पर मेरे नेत्रों कि दृष्टि फिर नहीं लौटी।
निराशा के उस भयानक क्षणों में मैंने जिद की कि मुझे किसी अंध विद्यालय में दाखिल कर दिया जाए।
अंध विद्यालय का वातावरण बहुत प्रेरक था। वहाँ अंध क्षात्रों के लिए शिक्षा के विविद साधन थे। हमारी पुस्तकें ब्रेल लिपि में थी। शालांत परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होकर मैंने कई पुरस्कार प्राप्त किए।
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पर मेरी रूचि सितार-वादन और संगिर में विशेष थी। मेरी आवाज भी मीठी और सुरीली थी। जब मैं सितार बजाकर गाता तो लोगों बैजू बावरा कि याद आ जाती थी। संगिर-स्पर्धाओं में भी मैंने तानसेनों को मुँह कि खिलाई! मेरी कला पर मुग्ध होकर एक ग्रामीण युवती ने मुझसे विवाह कर लिया।
वर्षों तक गिर और संगीत कि दुनिया में मेरा नाम चमकता रहा। मेरी आंखें नहीं थे, पर ज्ञान कि आँखों से मैंने कला की सारी बारीकियाँ आत्मसार कर ली थी।
संगीत समारोह में मेरी उपस्तिथि रौनक ला देती थी। नाम और दाम मेरे पीछे-पीछे भागते थे। मुझे इस बात का संतोष था कि अंधा होकर भी मैं किसी पर आश्रित नहीं रहा। अपने माता-पिता को भी मैंने किसी दृष्टि संपन्न पुत्र से कम सुख और संतोष नही दिया।
अब तो मैं बुरी तरह थक गया हूँ। सितार के तारों पर झूमती हुई इन उँगलियों में पहले जैसी ताकत नहीं रही। मैं चाहता हूँ कि अपंग जन मेरे जीवन से प्रेरणा लें। वे पंगुता के अभिशाप को वरदान में बदलकर दूसरों के भी हौसले बुलंद करे।
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