हम पढ़ते है – “बड़े भाग मानुष तन पावा “। इस मनुष्य शरीर के साथ-साथ परमात्मा की महान देन जीवन का प्रत्यक्षीकरण होता है। मनुष्य शरीर की प्राप्ति (जन्म) और मृत्यु से जीवन का प्रारंभ व समाप्ति नहीं होती। जीवन और मरण तो इसके रात और दिन है। जन्म से मेरा जीवन शुरू नहीं होता ना मृत्यु के साथ समाप्त होता है। मेरा जीवन तो अनंत है। जैसा संत तुलसीदास जी कहते है।
‘ईश्वर अंस जीव अविनासी’
यह जीव जिससे मेरा जीवन बना है वह ईश्वर का ही अंश है जैसे ईश्वर अविनाशी है, शाश्वत है ऐसे ही जीव अविनाशी है, शाश्वत है। गीता में भी भगवान कृष्ण जब अर्जुन से कहते है कि जो ज्ञान तूझे दे रहा हूं यही ज्ञान मैंने सूर्य देव को दिया है, तो अर्जुन ने कृष्ण भगवान से पूछा – “आपका जन्म तो अब हुआ है आप ने यह ज्ञान सूर्य देव को कब दिया” तो भगवान कृष्ण कहते हैं, “हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेकों जन्म हो चुके है, उन सब को तू नहीं जानता मैं जानता हूं”। गीता 4/3
मौत से क्या डरना ये तो हमारा मित्र है – Death is our friend, in Hindi
समुद्र से एक test tube भर कर पानी लिया जाए और उसका विश्लेषण किया जाए तो test tube के पानी में वही गुण होंगे जो विशाल समुद्र में है। इसलिए पूर्ण में जो गुण है वही उसके अंश में होंगे। परमात्मा ‘सत’ सदैव रहने वाला शाश्वत है तो उसका अंश भी शाश्वत होगा। इसलिए परमात्मा का ना जन्म है ना मृत्यु है, तो जीव का भी ना जन्म है ना मृत्यु। उपनिषद के शांति पाठ में भी आता है।
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ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं: पूर्णात पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवा व शिष्यते।
वह परब्रम्ह परमात्मा पूर्ण है तथा उससे उत्पन्न यह अंश जगत भी पूर्ण है। इतना पूर्ण है कि इसमें से कितना ही निकालें यह पूर्ण ही रहता है।
विज्ञान का कहना है कि कोई भी पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता। स्वरूप बादल जाता है लेकिन नष्ट नहीं होता। जैसे – जल भाप बन जायेगा, बर्फ बन जायेगा, स्वरूप बदल जायेगा लेकिन कभी समाप्त नहीं हो सकता। जीवन में मेरे कर्मो के संस्कारवश गुणों के संयोग तथा काल के प्रभाव से परिवर्तन होता रहता है। मुझे मेरे कर्मो वश कई योनियों में भटकना पड़ता है। जीवन में सुख और दुख आते है, मृत्यु और जन्म होते रहते है जीवन तो शाश्वत धारा के समान बहता ही रहता है। भगवान कृष्ण गीता में कहते है –
न जायते म्रियते वा कदाचिन नायं
भूत्वा भविता वा न भूय: l
अजो नित्य: शाश्वतोSयं पुराणों
न हन्यते हन्यमाने शरीर ll
यह आत्मा ना तो किसी काल में जन्म लेता है ना कभी मरता है ना यह कभी भूत (past) होता है ना भविष्य, यह सदैव वर्तमान पुरातन तथा शाश्वत है। शरीर मरते तथा जन्म पाते है। यह तो शरीर के मरने के बाद भी स्थित रहता है। इस जीवन में जन्म और मृत्यु तो ऐसे है जैसे हम वस्त्रों (dress) के पुराने तथा फट जाने के बाद बदल लेते है। पुराने वस्त्र उतारना मृत्यु है नये वस्त्र पहनना जन्म है। शरीर वस्त्र है। पुराना फट गया बदल लिया, नया धारण कर लिया।
जीवन में मृत्यु और जन्म इसी प्रकार आते रहते है। आपने एक कथा सुनी होगी।
राजा जनक अपने महल में सो रहे थे। स्वप्न देखते है कि किसी राजा ने आक्रमण कर दिया है वे हार गये है, अपना महल राज्य सभी कुछ छोड़कर जंगल में भाग गये है। कई दिन हो गये खाना नहीं मिला भूख से प्राण निकाल रहे है। एक स्थान पर पहुँचते है जहाँ सदावर्त चल रहा है। वे भी खाना लेने के लिये पंक्ति में लग जाते है। लेकिन जब उनका क्रम आया तो खाना खत्म हो गया।
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वे खाना बांटने वाले से प्रार्थना करते है कि “भाई कई दिन से भूखा हूं। मुझे खाना नहीं मिला तो मेरे प्राण निकाल जायेंगे”, वह जली हुई खिचड़ी एक दोने में रखकर देता है। तभी एक चील उस दोने को झपट कर ले जाती है। राजा को दुख के मारे चीख निकल जाती है।
राजा जाग जाता है और देखते है की मैं तो अपने महल में ही सो रहा था। किसी ने आक्रमण नहीं किया। उसने शाम को भर पेट स्वादिष्ट भोजन किया है, भूख भी नहीं लगी। फिर जो अभी मैं देख रहा था कि भूख प्यास से दुखी मैं जंगल में भटक रहा हूं और जो अब देख रहा हूं कि मैं तो अपने महल में ही सो रहा हूं, ना भूख, ना प्यास।
इसमें सत्य कौन सा है, क्या वह दुख भरा दृश्य जहाँ मैं भूखा प्यासा दुखी था, या यह कि मैं राजा हूं अपने महल में हूं। राजा सभी से पूछते है कि सत्य क्या है। जो अब देख रहा हूं वह या मैंने कुछ क्षण पहले देखा था वह। कोई उचित उत्तर नहीं दे पाता।
ऋषि याज्ञवल्क्य आते है। राजा उनसे भी यही प्रश्न करता है। ऋषि कहते है – राजन! ना वह सत्य है कि तुम भिखारी थे ना यह सत्य है कि तुम राजा हो। सत्य ये है कि “तुम” ही सत्य हो। इसलिए आवश्यक है कि मैं अपने को पहचानो कि मैं क्या हूं।
संत तुलसीदास जी लिखते है –
सपनेहु होई भिखारी नृप:, रंक ना कापती होई
जागे हानी न लाभ कछु।
सपने में भिखारी राजा हो जाता है, राजा भिखारी। विडम्बना यह है कि स्वप्न में स्वप्न के भिखारी और वास्तविक भिखारी में कोई अंतर नहीं रह जाता। जो तिरस्कार, घृणा, दुख तथा निर्धनता वास्तविक भिखारी झेलते है। वही तिरस्कार, घृणा, निर्धनता वह स्वप्न का भिखारी भी झेलता है करण क्या है? कारण यह है कि अपना वास्तविक स्वरूप को ना जानने के करण मैं जो दृश्य देखता हूं वही बन जाता हूं। जबकि मैं दृश्य नहीं हूं मैं तो दृष्टा हूं। मेरे लिये परम आवश्यक यह है कि मैं जानूं कि मैं क्या हूं?
पुराणों में ऐसी कथा आती है कि सृष्टि के आरम्भ में यहाँ कुछ नहीं था। उस निराकार परब्रम्ह में एक विचार आया कि ‘एकाकी न रमते’ अकेले में रमण नहीं हो सकता, आनंद की अनुभूति नहीं हो सकती। इसलिए विचार आया कि ‘एकोह बहुस्यामि’ मैं एक से अनेक हो जाऊँ। मैं वही एक से अनेक हुआ परमात्मा हूं। यहाँ आनंदानुभूति के लिए मेरे अवतरण हुआ है। मैं भी वही पूर्ण परमात्मा हूं। जैसा श्री तुलसीदास जी ने लिखा है।
ईस्वर अंस जीव अविनासी l
चेतन अमल सहज सुख रासी ll
मैं भी वही हूं उसी परमात्मा के सारे गुण मुझ मे है। मैं भी सत हूं, चेतन हूं, आनंद का केंद्र हूं। लेकिन यहाँ प्रकृति के संग के कारण मेरे इन ईश्वरीय गुणों पर ग्लानी आ गई। मेरे ये गुण प्रकृति के संयोग के कारण दब गए है। इसलिए अब मेरा स्वरूप अज्ञान, अशांति तथा दुख पूर्ण हो गया है। इस ग्लानी से मुक्त केवल मात्र परमात्मा स्वरूप गुरु की कृपा दृष्टि ही है। हमारे गुरु महाराज ने इसी ग्लानी को हटाने की एक अभूत पूर्व साधन दी है। साधन क्या है गुरु कृपा ही है। प्रार्थना है सभी पर दया करें।