कैसे खुद को Control करे? कैसे मन शान्त करे?

मानव मन अत्यंत चंचल होत है। चंचलता ही मन का सबसे बड़ा दोष है। उसे स्थिर और एकाग्र करना ही सबसे बड़ी साधना है। मन कैसे स्थिर हो? उसकी चंचलता कैसे दूर हो? इसका एक मात्र उपाय है अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना। हमारी इन्द्रियां, हमे लगातार इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमारे मन को उकसाती रहती है। एक इच्छा पूरी होती नहीं कि दूसरी उठ खाड़ी होती है। इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती। एक न एक मन में उठती हो रहती है।

हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति में न लगे रहें बल्कि उन्हें control में रखें, उन पर अंकुश लगा कर उन्हें मिटाने की चेष्टा करें। इस बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करने की चेष्टा करें- जरा। हमारी जीभ सबसे बलवान इन्द्रिया हैं। वह खाद्य पदार्थों का स्वाद भी लेती है और बोलती भी है, दो प्रमुख कार्य उसके द्वारा सम्पादित होते हैं। जीभ को control में रखने की चेष्टा बहुत बड़ी साधना है। अगर जीभ वश में हो तो बहुत सारे अनर्थ होने से बच जाएँ।

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जीभ के वश में अगर मनुष्य हो जाता है तो फिर मनुष्यता नष्ट हो जाती है। स्वाद के लिए जीभ हमेशा लपलपाती रहेगी, खाद्य और अखाद्य का विवेचन वह नहीं करती और न ही पाच्य-सुपाच्य का। जो बासना को तृप्त करे उसी की लालसा उसमें जागती है और वही उसके लिए ग्रहणीय होती है।

इसीलिए को जीभ के दुराग्रह के वशीभूत हो जाते हैं वे इसी चिंता में रहते हैं कि क्या खायें, क्या न खायें? कितना खायें और कैसे खायें? खा-खा कर उन्हें कभी तृप्ति नहीं होती इसलिए जीभ को अपने संयम में रखना आवश्यक है।

जीभ का प्रमुख दूसरा कार्य है ‘ बोलना ‘। अपनी बोली पर control रखना भी परम आवश्यक है। बोल कर ही अपने विचारों-भावों को प्रकट करते हैं। अपनी इच्छा-अनिच्छा, क्रोध-घृणा या आदर-सम्मान की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम भी हमारी वाणी है।

क्रोधावस्था में हम कटु से कटु वाणी बोलते हैं, गलियां बकते हैं यानी आग लगाते हैं और विष उगलते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि स्थिर विकट से विकटतर हो जाती है और परिणाम होता है भयंकर। इसलिए हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि हम अपनी जीभ को control में रखें, अपने क्रोध पर संयम रख कर वाणी पर अंकुश रखें। कठिन तो होता है क्रोध की स्थिति में जीभ पर control रखना।

पर चेष्टा तो करनी ही चाहिए कि हमारी बोली हद से न गुजर जाए। चेष्टा से अनवरत चेष्टा से वाणी पर मनुष्य अन्कुच लगा सकता है। असंभव नहीं है संयम का ऐसा अभ्यास करना। वाणी को वश में करने की क्षमता मनुष्य में आ जाती है और संयमित वाणी से किसी भयंकर परिणाम का डर नहीं रह जाता।

जैसे की हम सभी जानते है मन बड़ा चंचल है वह हमेशा कुछ न कुछ जानने, सुनने, देखने या करने को उत्सुक रहता है। नाना प्रकार की जिज्ञासाएं मन में उठती रहती है। मन को चंचलता हर घड़ी कुछ न कुछ जानने-सुनने या कहने-करने के लिए मनुष्य को कुरेदती रहती है।

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हमें आदत डालनी पड़ेगी कि हम अपनी जिज्ञासाओं को control में रखें। वे हमारे मन को क्षुब्ध और लुब्ध न करें। साथ ही मन की उत्सुकताओं को भी हम दबाना सीखें। प्राय: कौन कहाँ जा रहा है, क्या कर रहा है या किसे क्या करना चाहिए, न करना चाहिए जैसे प्रश्नों में हम उलझ जाते हैं।

ये प्रश्न हमारे लिए आवश्यक नहीं अत: इनसे अपने आपको अलग रखने का अभ्यास बनाना जरूरी है। ऐसी बातों से खास कर बुजुर्गों को कोई ताल्लुक नहीं रखना चाहिए।

अनावश्यक प्रश्न, या हस्तक्षेप रोक-टोल या पाबन्दी लोगों कप पसंद नहीं आती। लोग कुढ़ते हैं, झींकते हैं और टीका टिप्पणी करते हैं जिससे घर का वातावरण अस्वस्थ हो उठता है। इसलिए हमें ध्यान रखना चाहिए कि न तो हम अनावश्यक प्रश्न करें, न किसी को आदेश-निर्देश दें।

अपना काम जितना हो सके, खुद करें। किसी को कुछ करने के लिए कहना अनुचित है। इस संदर्भ में यह बात मन में आ सकती है कि घर-गृहस्थी में रह कर इतना विरक्त होना या उदासीन रहना क्या उचित है? सर्वथा विरक्त और उदासीन रहना उचित नहीं पर अत्यधिक अनुरक्ति और जुड़े रहना भी उचित नहीं।

जो भी कहना हो जो उचित लगे उसे एक दो बार जरुर कह दें या समझा दें करने के लिए पर इससे अधिक नहीं? बार-बार दुहराने से वही बात लोगों में ऊब पैदा करती है और वह निरर्थक और व्यर्थ समझी जाती है।

अपने जरूरतों पर पाबंदी रखना आवश्यक है। कम से कम चीजें होंगी तो कम से कम उनके पीछे समय बरबाद होगा। पैसे,समय और श्रम का दुरुपयोग भी इससे होता है। आवश्यकताएं जीतनी सिमित होंगी समय का अपव्यय उतना ही कम होगा। अत: जीवन में सुख और शांति बनाए रखने ले लिए अपनी आवशयकताओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है।

सुख-सुविधाओं के साधन जुटा लेने से सुख नहीं मिलता। वास्तविक सुख तो मन की शान्ति में है, संतोष में है और सत् साहित्य के अध्ययनमनन और निदिध्यासन में है।

सदवृत्तियों को अपनाने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है और अभ्यास के लिए संयम की जरुरत है अत: मन को संयम और नियम में बाँधने की जरुरत है तभी जीवन सार्थक लगेगा और मन की शांति मिलेगी।

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