क्या है जीवन मुक्ति का उपाय?

मौसम के बारे में जो भविष्यवाणियाँ होती है उसमें हमेशा यह लिखा रहता है अभी दो दिन और शीत पड़ने की संभावना है। यह नहीं होता कि उसमें यह लिखा हो कि दो दिन शीत और पड़ेगी। यह संभावना या अनिश्चितता ही प्रकृति का अभिन्न अंग है।

प्रकृति में जो कुछ होता है उसमें हमेशा एक अनिश्चितता बनाई जाती है। कम ज्यादा हो सकती है परन्तु यह रहती अवश्य है। हमारे भी जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक यह अनिश्चितता हर समय हमारे साथ रहती है। हम अभी नहीं कह सकते कि अगले पल क्या होगा हम रहेंगे या नहीं रहेंगे। यह अनिश्चितता हमारे दुखों का भी कारण है, क्योंकि हम माया के प्रभाव में हमेशा इस अनिश्चितता को भूले रहते है।

जीवन से मुक्ति पाने का उपाय?

क्या है जीवन मुक्ति का उपाय?
Mukti kaise milegi?

हम जो भी कार्य संसार में सुख पाने के लिए करते है उसमें यह हमारा भाव रहता है कि यह निश्चित होगा। हम हमेशा रहेंगे और यह कार्य इसी तरह होना चाहिए। लेकिन कोई भी कार्य हम करें उसमें फल क्या होगा यह हमारे हाथ में नहीं है। यह तो अनिश्चित है कि वह हमारे इच्छा के अनुकूल होता है तो हमको सुख मिलता है।

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इस कर्म का फल यह होना चाहिये लेकिन जब उसके विपरीत होता है तो हम दुख को प्राप्त होते है। यह अनिश्चितता का भाव याद न रखना ही हमारे दुख का कारण है।

इसलिए भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश दिया था कि तू दृष्टा भाव लाकर सारे कर्म कर। दृष्टा भाव में यह नहीं है कि हम कर्म न करें अजगर की तरह पड़े रहें। दृष्टा भाव में यह है कि कर्म तो हम पूरी तरह करें परन्तु फल के ऊपर दृष्टा भाव ले आयें। चाहे वह हमारी इच्छा के अनुकूल हो या विपरीत हो। दोनों में सम भाव रखें। परन्तु यह मनुष्य के लिए बड़ा कठिन काम है।

एक बार गोष्ठी (seminar) हो रही थी यह प्रश्न उठा कि भगवान कृष्ण जैसे गुरु थे, अर्जुन जैसे शिष्य था, परन्तु फिर भी सारी गीता का उपदेश सुनने के बाद विराट रूप का दर्शन करने के बाद अर्जुन को नरक जाना पड़ा।

ऐसा कहते है – बहुत बातें हुई उसमें अंत में यही निष्कर्ष था कि अर्जुन ने युद्ध के दौरान कुछ क्षणों में भगवान कृष्ण से जो कुछ सुना था वह अपने जीवन में उतार नहीं पाया। वह दृष्टा भाव फल के प्रति नहीं ला पाया। दृष्टा कर्ता नहीं होता, अकर्ता होता है। परन्तु अर्जुन कई बार उस युद्ध के दौरान अपने को ही कर्ता मानता रहा।

इसलिए जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया तो अर्जुन ने भगवान कृष्ण कि इस युद्ध में मैंने बहुत से करने न करने के कर्म किये है अच्छा हो आप मुझे गंगा स्नान करा लाए। जिससे मैं पवित्र हो जाऊँ। भगवान कृष्ण समझ गये अभी इसकी बुद्धि में वह नही आया जो इसको सिखाना चाहता था, बोले कि “हाँ, भाव तो बहुत अच्छा है चलो तुमको गंगा स्नान करा दें”। वह गंगा के किनारे गये थोड़ी दूर पर रथ रोक दिया, बोले कि घोड़े थक गये है मैं इनको घास चराता हूं थोड़ी मालिश भी करूँगा तुम ऐसा करो तब तक गंगा स्नान करके आ जाओ।

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अर्जुन जब गंगा की तरफ जा रहा था तो उसने एक विचित्र दृश्य देखा कि एक मुर्दा पड़ा है और एक कुत्ता उसके चारों तरफ चक्कर खा रहा है, परन्तु उसको खाता नहीं। यह कुत्ते की जो प्रकृति है उसके विपरीत था। इसलिए अर्जुन वहां रुक गया कि देखें क्या होता है।

थोड़ी देर में अर्जुन ने देखा कि एक और कुत्ता आया और वह पहले कुत्ते को देखकर बोला कि भाई क्या बात है? भोजन सामने है परन्तु तुम उसके चारों तरफ चक्कर तो लगा रहे हो खा नहीं रहे। मैं समझ रहा हूं कि तुम भूखे भी हो।

अर्जुन को भी भगवान कृष्ण की कृपा से उसके भाव समझने की बुद्धि आ गई। अर्जुन ने सुना कि पहला कुत्ता कह रहा था कि – भाई देखो पिछले जन्म में हमने बहुत बुरे कर्म किये थे इस कारण से यह श्वान योनी (dog body) हमको प्राप्त हुई। इस मनुष्य ने मुझसे भी बुरे कर्म किये हुये है। मैं यह सोच रहा हूं कि इसको खाकर अपनी और दुर्गति करूँ या न करूँ।

तो दूसरे कुत्ता बोला कि इसमें सोचने की क्या बात है ? चलो कहीं और भोजन करेंगे। दोनों जाने लगे तब दूसरे कुत्ते की निगाह अर्जुन पर पड़ी वह बोला कि देखो अर्जुन खड़ा है। पहला कुत्ता बोला कि हाँ अर्जुन जैसा मुर्ख मैंने दूसरा नहीं देखा।

जिसको भगवान कृष्ण ने सारी गीता का उपदेश दिया, विराट रूप का भी दर्शन कराया, बार-बार उसको युद्ध में बचाया भी, तब भी वह यह समझता है कि मैंने युद्ध किया। सारा युद्ध तो भगवान कृष्ण ने लड़ा और वह अब भी इसी भाव में है कि मैं युद्ध कर रहा था और इसलिए गंगा स्नान के लिए जा रहा है।

जब यह बात अर्जुन ने सुनी तब उसको समझ में आया कि मैं तो अकर्ता था इस युद्ध में कर्ता तो भगवान कृष्ण थे और वह वहां से लौट पड़ा। अर्जुन को देखकर भगवान कृष्ण बोले क्या बात है ? इतनी जल्दी बिना नहाए कैसे चले आए ? वह उनके चरणों में गिर पड़ा कि भगवान मुझे क्षमा करें। मैं आपको समझ नहीं पाया।

वैसे भी आप देखिए कि भगवान कृष्ण ने जब उसको सारा उपदेश दे दिया, दृष्टा बनने को कहा तो अर्जुन ने यही कहा कि मैं बहुत कोशिश करता हूं कि मैं आपके कहे अनुसार चालू परन्तु वह तो ऐसा है जैसे हजार घोड़ों का बल उसमे हो, फट से चला जाता है।

तो भगवान कृष्ण ने उसको समझाया था कि मन को वश में करने के लिए दो ही कार्य करने पड़ते है वह है अभ्यास और वैराग्य। अभ्यास किसी कार्य को बार-बार करने को कहता है। संसार में दृष्टा भाव ले आयें तो वैराग्य पूर्ण हो जाता है। ऐसा मनुष्य जो संसार में सारे कार्यों के प्रति दृष्टा भाव ले आयेगा वह राग, द्वेष, सुख, दुख इन सबसे परे हो जाता है।

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ऐसे ही मनुष्य को बीतराग (शांत चित्त व्यक्ति) कहते है। किसी बीतराग पुरुष का चिंतन करने से भी इस परमात्मा को प्राप्त हो जाते है। सरे उपदेश सुनने के बाद भी अर्जुन अपने जीवन में दृष्टा भाव नहीं उतार पाया था क्योंकि युद्ध के कारण उसको समय नहीं मिला कि इस बात का अभ्यास कर ले।

इसी दृष्टा भाव का अभ्यास गुरु महाराज ने पहले दिन से ही हम सबको बताया है। अकर्तापन ही अगर हम जीवन में ले आए तो हम वीतराग पुरुष बन सकते है जीवन-मुक्त मनुष्य कहला सकते है। इसी की शिक्षा गुरु महाराज ने दी थी और वह एक ऐसे ही महापुरुष थे जो जीवन में कर्ता रहते हुए भी अकर्ता थे। दृष्टा थे। वह हमेशा कहते थे कि मैं तो कुछ नहीं करता गुरु महाराज ही सबकुछ संभालते है। हम भी ऐसा करें कि इस जीवन में अकर्ता का भाव ले आयें। दृष्टा बन जाए तो हम जल्दी ही इस जीवन में जीवन मृत्यु अवस्था प्राप्त कर सकते है।

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