जिंदगी कैसे जिए? जिंदगी जीने का तरीका क्या है?

जिंदगी के बारे में हर एक इंसान के विचार एकाग-अलग होते है। जिंदगी एक ऐसी चीज है जो बड़ी किस्मत से हमें मिलती है और एक बार जिंदगी खत्म हो जाने पर फिर वापस नहीं मिलती। जिंदगी चाहे छोटी हो या लंबी हो, हमे जिंदगी के हर एक पल को पूरी तरह से enjoy करना चाहिए। और कुछ नहीं तो कम से कम यही सोचकर हमे खुशी से जी लेना चाहिए कि जिंदगी फिर से नहीं मिलेगी। जो भी है जैसा भी है ये जिंदगी हमारी है, ये जिंदगी बहुत प्यारी है।

इसलिए हमारी कोशिश हमेशा यही होनी चाहिए कि जिंदगी का एक भी पल बेकार न जाए। अगर समस्या भी है तो भी मुस्कुराना चाहिए ताकि जिंदगी जीने में कोई कसर न रहे। आखिर हंसते-मुस्कुराते भी तो हम समस्याओं को समाधान कर सकते है न। तो आइए जाने कि हमे अपनी जिंदगी कैसे जिनी चाहिए।

जिंदगी कैसे जिए? जिंदगी जीने का तरीका क्या है

1. हमेशा हंसते रहे

जिंदगी में हमेशा हमे हंसते रहना चाहिए। अगर हम हमेशा हंसते रहेंगे तो कम समय में ही ज्यादा जिंदगी जी लेंगे फिर जिंदगी कितनी भी छोटी तो हमे अपनी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रहेगी।

2. आत्मविश्वास और प्रेरणा

जो भी काम करते आपका मन खुश होता है और वो काम करने से किसी का कोई नुकसान न हो तो आप वो काम जरुर करे। क्योंकि अपना मनचाहा काम करने से ही आप अपनी जिंदगी में खुश रह पाएंगे।

3. किसी के लिए मन में नफरत न रखे

जिंदगी  नाम है प्यार और अपनेपन के साथ जीने का। आप अपने मन में किसी के लिए नफरत न रखे। सबसे प्यार और अपनापन रखे तभी आप अपनी जिंदगी को पूरी तरह enjoy कर पाएंगे और पूरी तरह से जी पाएंगे।

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4. अपनों के साथ जिए

अपनों के साथ जीने में ही जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी है। तो जितनी दिन भी जिंदगी है हमेशा अपनों को जोड़कर और अपनों के साथ जिए।

5. सबको खुश रखे

जिंदगी सिर्फ खुश रहने का ही नाम नहीं है बल्कि खुश रहने का भी नाम है। इसलिए जितना हो सके अपने आस पास के लोगो को खुशियाँ बाँटने की कोशिश करे। याद रखिये कि दूसरों को खुशियाँ देना का भी एक अपना ही मजा है।

6. अपने आपको तंदरुस्त रखे

अगर आप अपनी जिंदगी को पूरी तरह से enjoy करना चाहते है तो अपने आप को हमेशा fit रखे। तंदरुस्ती ही खुशी का आधार है।

अपनी जिंदगी को कैसे बरबाद न करे

यह जीवन अनमोल हीरा है, इसे कौड़ी के बदले मत गंवाओ। क्या इस पर विचार किया है कि यह हीरा क्यों है? और कौड़ी पर गंवाना क्या है? इस मनुष्य शरीर को पाकर अगर इसे सिर्फ खाने-पीने, सोने-जगाने और व्यर्थ के कामों में ही खपा दिया तो यही कौड़ी के मोल बिकता है।

जीवन में कोई विशेष ज्ञान प्राप्त किया बस बच्चे जैसे कौड़ी से खेलते हैं, इधर-उधर फेंकते हैं, यही हाल जीवन का हुआ तो इसे खेल में ही गँवा दिया। यह कितनी बड़ी नादानी है, कितनी बड़ी भूल है, कितनी बड़ी हानि है। कहते हैं कि एक बालक खेत में रखवाली कर रहा था। उसने कहीं से बहुत से पत्थर इकट्ठा कर लिये थे और उन्हें फेंक-फेंक कर पक्षियों को भगा रहा था।

कोई जौहरी उधर से गुजरा तो यह तमाशा देखा कि ये तो सब हीरे हैं, साधारण पत्थर नहीं है। यह इन्हें पहचानता नहीं है इसलिए इन्हें फेंक रहा है। उसने बच्चे को इसकी कीमत बताई, कहा ये हीरे हैं, बड़े कीमती हैं। इन्हें संभाल कर रख। बच्चे को कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया। सोचा कोई खास पत्थर होंगे।

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यही हाल हमारा है। हमने इसका मूल्य नहीं समझा है। इसलिये इसे अनाप-शनाप कर्मों में, मौज-मस्ती में व्यतीत कर रहे हैं। हमारा अपना कोई लक्ष्य नहीं है। अगर लक्ष्य है भी तो यही कि खूब धन कमा लो। जैसे भी हो किसी दूसरे का हथिया लो। छल-प्रपंच और हिंसा के द्वारा भी अपना घर भर लो और अंत में हाय-हाय करके अपना जनाजा निकाल लो। क्या मिला, क्या हाथ आया?

इसलिये इकट्ठा इतना ही करो जिसमें घर गृहस्थी ठीक से चले। नेक कमाई करो। परिश्रम का अन्न ग्रहण करो। आत्मा प्रसन्न होगी। सुख और शांति नसीब होगी। दस-बीस पीड़ियों की चिंता करना, उसके लिये हाय-हाय करना कोई अर्थ नहीं रखता, हाँ कुछ न कुछ काम आने वाली वस्तु, सद्विचार और सद्ज्ञान, आनेवाले पीढ़ियों के लिये अवश्य छोड़ जाओ ताकि उनका मार्ग प्रशस्त हो सके।

हमारा ये मानव जीवन ही हीरा है। संत जन ही जौहरी हैं जो इस हीरे की कीमत जानते हैं। हमें इसे खेल-खेल में गंवाते देखकर उन्हें दुख होता है। वे हमें जगाते है कि इसकी कीमत जानो और सत्य के प्रकाश में आओ। वे कहते हैं कि यह संसार एक बाजार है। यहाँ सारी चीजें बिक रही हैं। इस जीवन में अच्छा सौदा करो। आत्म ज्ञान का उजाला पाओ। यही अमृत है।

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यह और कहीं नहीं मिलेगा। बस इसी शरीर में, इसी संसार में ही यह मिलेगा। मगर हम उनकी बातें सुनकर भी अनसुना करते जा रहे हैं। एक नादान बालक की तरह हम इसकी कद्र नहीं करते। वे जगाते हैं, हम फिर उसी अज्ञान की निद्रा में सो जाते हैं। हम नहीं जान पाते कि यह जीवन का हीरा कितना मूल्यवान है। हम इसे जानने के लिये तत्पर ही नहीं होते। अरे, अब तो उठो और संत-सद्गुरु से इसका भेद जानो। लोग आत्मज्ञान को हीरा कहते हैं, मगर यह हीरे से भी अनमोल है। इस पर लाखों-कड़ोरो हीरे वार दो तब भी इसका मोल नहीं चुकेगा।

अष्टावक्र जी राजा जनक के दरबार में आत्मज्ञान देने के लिये गये। जब गुरु और शिष्य आमने-सामने बैठे तो गुरु ने पूछा- राजन, इस आत्मज्ञान के लिये क्या कीमत चुकाओगे?

राजा ने कहा – महाराज, यह तो मैंने पहले ही घोषित कर रखा है कि इसके बदले आधा राज्य दे दूंगा।

गुरु ने कहा – बस आधा ही? अरे इस आत्मज्ञान की कीमत सिर्फ आधा राज्य ही है? राजा समझदार थे, कहा – महाराज में संपूर्ण राज्य दे दूंगा।

गुरु ने कहा – राजन इस आत्मज्ञान की कीमत संपूर्ण राज्य भी नहीं है। यह तो कुछ भी नहीं है। तब राजा ने कहा- महाराज तब और क्या है? हमारे पास तो यह शरीर ही बचा है।

गुरु ने कहा – राजन इस राज्य और हीरे जवाहरातों से भी कीमती एक चीज आपके पास है और वह है – आपका मन ! बस ! वह मन ही हमें दे दीजिये और राजा ने अपने मन का भी संकल्प करा डाला। अर्थात अपना आपा गुरु को सौंपकर एकदम खाली होकर गुरु के सामने बैठ गया। गुरु के मन में अपने मन को मिला दिया और गुरु ने पल भर में निहाल कर दिया।

राजा जनक को जब आत्मज्ञान हो गया तो उठकर गुरु को प्रणाम किया और कहा – गुरूदेव, मैं जो चाहता था, वह प्राप्त कर गया। मेरा रोम-रोम इस अमृत से सिक्त हो रहा है। अब मैं जा रहा हूँ। किसी दूर देश में अपना जीवन यापन कर लूँगा। यह सब राज-पाट आपका है, आप इसे संभालिये।

गुरु ने कहा – राजन, आप फिर गलती कर रहे हैं। हम यहाँ राज्य करने नहीं आए हैं। हम इसे लेकर क्या करेंगे? आप राज्य उसी तरह कीजिये, जैसा पहले करते थे। आप इसका अच्छा प्रबंध करें। पहले आप इसे अपना राज्य जानकार राज्य करते थे, अब इसे मेरा जानकार करें, गुरु का जानकार करें, परमात्मा का जानकर करें। हमने तुझसे राज्य नहीं छुड़ाया, इसके प्रति जो तुम्हारी ममता थी, आसकित थी, उसे ही छुड़ाया। तुम्हारे अन्दर ‘ मैं ‘ था, मेरापन था उसे ही छुड़ाया।

हम सोचते हैं आत्मज्ञान होने से यह संसार छूट जायेगा। यह सारी धन-संपत्ति छूट जायेगी। हम भिखारी बन जायेंगे। टुकड़े मांग कर जीवन निर्वाह करना पड़ेगा। शरीर को बड़ा कष्ट उठाना पड़ेगा। मगर यह भारी भूल है। इस संसार में सुखमय जीवन जीते हुए, धन-संपत्ति और घर गृहस्थी का पालन करते हुए भी जीवन में यह अमृत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

इसके लिये घर-बार छोड़ने की नहीं, बस विचार बदलने की जरुरत है। बिना सद्गुरु के यह मार्ग मिलता ही नहीं। लोग किताबों को पढ़कर इस मार्ग को खोजते हैं, उसमें अपना सर खपाते हैं, परन्तु इसका पता नहीं मिलता। क्योंकि आदिकाल से, परंपरा से सदगुरुओं का एक सिलसिला बना हुआ है। जीव जब इसे पाने की इच्छा करता है तब सद्गुरु इसका द्वार खोल देता है।

सच्चा इंसान वही है जो संसार को भोगता हुआ भी आत्मा को भूलता नहीं है। जीवन उसी का सार्थक हेई जिसने आत्म तत्व को प्राप्त कर लिया। यह आत्मज्ञान पढ़ने लिखने वाला ज्ञान नहीं है। यह तो अनुभवी ज्ञान है। इसलिए इसे बेपढ़ों ने भी पाया है। यह प्रत्यक्ष अनुभव और व्यवहार का ज्ञान है। जिसे यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वास्तव में उसी का मानव जीवन सफल है।

इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए प्रथम अपने अन्त:करण को एकदम खाली करना होता है। तभी सद्गुरु का दिया हुआ ज्ञान उसमें ठहरता है। अपना सबकुछ सद्गुरु के चरणों में समर्पित करना होता है। जब तक मैं पना और अहंकार रहता है, यह ज्ञान अन्तर में उतरता ही नहीं। कहा है कि ‘ एक म्यान में दो खड़ग देखा-सुना न कान ‘ – आत्मज्ञान और अहंकार में बड़ा फासला है। इन दोनों का मेल कभी नहीं होता। इस अहंकार का सेहरा तभी सर से उतरता है जब जीव विनीत भाव से, समर्पण भाव से सद्गुरु के पावन चरणों में शीश झुकाता है।

आत्मा तो निर्लेप है, सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है, मगर जीवात्मा माया के पदों में आबद्ध होने के कारण अपना स्वरुप भूल रहा है। जैसे बादल के बीच में आ जाने से सूर्य छिप जाता है, जैसे ही आत्मा का प्रकाश ममत्व और अहंकार के बादलों से छिपा हुआ है। सूर्य को ढक लेने के बाद भी बादलों का कोई विकार सूर्य को स्पर्श नहीं करता।

सूर्य जैसा था, वैसा ही उस पार चमकता रहता है, ऐसे ही माया जनित विकार आत्मा को स्पर्श नहीं करते। आत्मा सदा सर्वदा एक रस देदीप्यमा रहती है। बस जीव का यह कर्तव्य है कि इन मायावी बादलों को छिन्न-भिन्न करके किसी तरह उस पार पहुँच जाय। सद्गुरु के दरबार में यह बड़ी आसानी से संभव हो जाता है। सत्संग में आते ही ये बादल छटने लगते हैं और अन्तर का आकाश साफ होने लगता है। इसके लिये यहाँ कुछ करना नहीं पड़ता, बस सद्गुरु की आज्ञा में चलना होता है।

यह ज्ञान सत्संगति से ही अन्दर में उतरता है। यह सबके लिये सब जगह सुलभ भी है। हमें ऐसी जगहों पर अपनी बैठक बनानी चाहिये जहाँ आत्मज्ञान बरसता रहता है। आत्म कल्याण के लिये यही एकमात्र सरलतम मार्ग है।

निष्कर्ष

जिंदगी सीखने का ही तो नाम है और जिंदगी इतनी छोटी है कि हम उसे यूँ ही गवां देते हैं। दोस्तों आप अपने मन से उन विचारों को दूर करें जो आपकी सोच को एक सीमित दायरे तक रखने का काम करती है।

आज का हमारा आर्टिकल जिंदगी कैसे जिए? आपको कैसा लगा हमें कॉमेट के जरिए जरुर बताए और अगर आप अपनी जिंदगी के कुछ मजेदार पलों के बारे में हमसे शेयर करना चाहते हो तो उसका भी जिक्र करें। धन्यवाद

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