Lalach buri bala hai, lalach ka fal. moral strory in Hindi.. गोदावरी नदी के तट पर समर का एक विशाल वृक्ष था। उस वृक्ष पर विभिन्न दिशाओं से अनेक प्रकार के पक्षी आकर रात्रि-निवास करते थे। उसी वृक्ष पर लघुपतनक नाम का एल कौआ भी रहता था। एक सुबह जब वह जागा तो उसने एक भयानक आकृति वाले बहेलिया को उसी वृक्ष की ओर आते देखा।
बहेलिया को देख कौए ने सोचा, ‘आज जो सुबह उठते ही अपशकुन हो गया, जो इस जल्लाद की सूरत दिखाई दे दी है। पता नहीं क्या दुष्परिणाम निकलेगा?’ यह सोचकर वह भयभीत कौआ अपने स्थान से उड़ा और बहेलिया के पीछे-पीछे चल पड़ा।
बहेलिया का पीछा करते हुए कौए ने देखा कि एक जगह पहुँचकर उसने चावल के कुछ दाने ज़मीन पर बिखेर दिए और उसके ऊपर अपना जाल बिछाकर एक ओर छिपकर बैठ गया।
लालच बुरी बला है – Hindi Moral Story
तभी आसमान में उड़ता हुआ कबूतरों का एक झुंड वहां से गुजरा। इस कबूतरों का स्वामी था ‘चित्रग्रीव’। कबूतरों ने नीचे देखा तो उन्हें ज़मीन पर बिखरे चावल के दाने नजर आ गए। चावलों को देखकर कबूतरों के मुँह में पानी भर आया और वे उन्हें खाने को लालायित होकर नीचे उतरने लगे।
लेकिन तभी चित्रग्रीव ने उन्हें टोकते हुए सावधान किया, ‘नहीं मित्रों, इन चावलों को खाना हमारे लिए उचित नहीं। जरा सोचों, इस वीरान जंगल में चावल कहां से आ सकता है। निश्चिंत ही दाल में कुछ काला है। मुझे इसमें किसी प्रकार का कल्याण दिखाई नहीं देता। कही ऐसा नहीं हो की हम चावल खाने नीचे उतरे और कोई हमारा शिकार कर ले’।
चित्रग्रीव की बात सुनकर एक घमंडी कबूतर ने बोला – ‘यह आप कैसी बात करते है। यदि हम प्रत्येक अवसर पर इसी प्रकार विचार करते रहे तो हमें तो भोजन मिलना भी मुश्किल हो जायेगा। इस भूतल पर तो अन्न, जल आदि सभी वस्तुओं में शंका की गुंजाईश है। सब जगह किसी न किसी प्रकार का संदेह बना ही रहता है। तब कोई किस पर विश्वास करे और किस पर न करे। फिर तो जीवन ही दुष्कर हो जाएगा’।
ईर्ष्यालु, दूसरों से घृणा करने वाला, क्रोधी, असंतोषी, हर काम में शंका करने वाला और दूसरों के भाग्य पर जीवित रहने वाला अर्थात दूसरों की कमाई खाने वाला, ये 6 प्रकार के व्यक्ति हमेशा दुखी ही रहते है। इनको कभी भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता।
उस कबूतर का इतना ही कहना था की सभी कबूतरों ने अपने मुखिया की बात की उपेक्षा कर दी और नीचे पड़े चावल के दानों को खाने के लिए झपट पड़े।
लोभ और लालच एसी ही बला है। इनके वशीभूत होकर बड़े-बड़े ज्ञानी और महान शास्त्रों के जानकार भी संकट में पड़ जाते है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि लोभी से ही मनुष्य में क्रोध उत्पन्न होता है, लोभ से ही मनुष्य में मोह उत्पन्न होता है और मोह व्यक्ति का सर्वनाश कर देता है। इसलिए लोभ ही सरे पापों का कारण है।
लोभ के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसे महापुरुष एक स्वर्ण मृग (सोने का हिरण) के लिए छले गए थे, जबकि सभी जानते है कि सोने का मृग कहीं नहीं होता है। अधिकांश यही देखा गया है कि मुसीबत आने पर समझदार से समझदार व्यक्ति की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाया करती है।
चावलों के मोह में पड़कर वे कबूतर भी बहेलिया के बिछाए जाल पर आ बैठे और उसमे फँस गए। तब वे सब उस घमंडी कबूतर को, जिसके कहने पर ये यहाँ उतरे थे, बुरा-भला कहने लगे।
सच ही तो कहा गया है कि किसी दल का मुखिया नहीं बनना चाहिए क्योंकि मुखिया बनने पर यदि कार्य पूरा हो जाता है, तब तो कोई विशेष लाभ नहीं होता, परन्तु यदि दल पर किसी प्रकार की विपत्ति आ जाए तो मुखिया ही सबसे पहले कसूरवार समझा जाता है और सरे दोषों का पहाड़ उसी के सिर पर टूटता है।
जब दूसरे कबूतर उस भड़काने वाले कबूतर का तिरस्कार कर रहे थे तो उसी समय चित्रग्रीव ने कहा, ‘दोस्तों, इसमें इसका दोष नहीं है। जब मुसीबत आती है तो अपना भला चाहने वाला भी मुसीबत का कारण बन जाया करता है।’
इसके विपरीत जो जो मुसीबत में पड़े अपने बंधु को उस मुसीबत से उबार ले, वही सच्चा दोस्त कहलाता है। ऐसे समय में वह व्यक्ति, जो उस विपरीत परिस्तिथि में पड़े अपने मित्र को धिक्कारता है, उसे सच्चा मित्र नहीं कहा जा सकता। कहा भी गया है कि मुसीबत में घबराना कायरता का लक्षण है। इसलिए इस समय यही उचित है कि हमें सब्र से इस मुसीबत का सुलझाने का उपाय खोजना चाहिए।
जिसे सम्पत्ति प्राप्त होने का हर्ष नहीं होता, विपत्ति आने पर जो दुखी नहीं होता, विपत्ति आने पर जो दुखी नहीं होता, जो युद्ध में कायरता नहीं दिखाता, ऐसे तीनों प्रकार के विरले व्यक्तियों को कुछ ही माताएं जन्म दिया करती है। ऐसे पुरुष संसार में बहुत ही कम उत्पन्न होता है। कहा भी गया है कि जो व्यक्ति धनवान बनना चाहता है, उसको चाहिए कि वह निद्रा, तंद्रा, आलस्य, भय, क्रोध एवं विलास – इन 6 अवगुणों का सर्वथा त्याग कर दे।
इतना कहकर चित्रग्रीव थोड़ा रुका, फिर उसने आगे कहा, ‘अब इस मुसीबत से बचने का एक ही उपाय है और वह उपाय है कि एक साथ कोशिश करके इस जाल को लेकर ही उड़ जाए, क्योंकि छोटी-छोटी वस्तुएँ ही इकट्ठी होकर व्यक्ति का काम बना दिया करती है। साधारण तिनकों से बनी रस्सी से एक मतवाले हाथी को भी बाँधा जा सकता है। कोई भी व्यक्ति कितना भी छोटा क्यों न हो, यदि वह एक साथ होकर काम करता है तो सफल होता है। सोचो, धान में से यदि उसका छिलका निकाल दिया जाए तो क्या चावल से धान का पौधा उग सकता है? कभी नहीं।’
चित्रग्रीव की बातों का कबूतरों पर उचित प्रभाव पड़ा। सभी ने मिलकर जोर लगाया और वे कबूतर जाल लेकर ऊपर उड़ गए। बहेलिया ने जब ये दृश्य देखा तो घबराकर वह भी उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा।
बहेलिया के दौड़ने का एक कारण यह भी था कि वह सोच रहा था कि इस समय तो इन कबूतरों में जोश है, ये एक साथ है, पर जब भूख से व्याकुल होकर थक जायेंगे तो स्वयं ही नीचे गिरकर मेरे सामने पड़ जायेंगे।
इस प्रकार सोचते हुए बहेलिया ने बहुत दूर तक उन कबूतरों का पीछा किया किंतु जब उसकी आँखों ओझल हो गए तो वह निराश हो गया और वापस लौट पड़ा।
इधर कबूतरों ने जब देखा की बहेलिया लौट गया है तो वो परस्पर विचार करने लगे की अब क्या किया जाए?
इस अवसर पर चित्रग्रीव ने कहा – दोस्तों, माता-पिता और मित्र ये तीन स्वभाव के हितकारी होते है। इनके अतिरिक्त जो अन्य लोग शुभचिंतक बनते है, वे सब कार्य और करणवश बनते है। अर्थात जब किसी से किसी का स्वार्थ सिद्ध होता है तो उस समय वे उसके शुभचिंतक बन जाते है, नहीं तो अपने-अपने घर का रास्ता नापते है।
एक बड़ा मेरा घनिष्ट मित्र है, उसका नाम है हिरण्यक। वह गंडली नदी के तट पर चित्रवन में रहता है। मेरा विचार है की यदि हम उसके पास चलें तो वह हमें इस जाल से मुक्त कर सकता है।
सभी ने चित्रग्रीव के इस सुझाव को पसंद किया और वे सभी हिरण्यक चूहे के बिल के समीप पहुँच गए। हिरण्यक नाम का यह चूहा बहुत समझदार था। उसने अपने बिल के 100 द्वार बनाए हुए थे, ताकि मुसीबत के समय वह उपयुक्त द्वार से बाहर निकलकर अपनी जान बचा सके। कबूतर जब जाल लेकर उसके बिल के सामने उतारे तो उनके उतारने से जो शोर हुआ, उसे सुनकर वह डर गया और अपने बिल में सिमटकर बैठ गया। वह विचार करने लगा की यह कैसा शोर हो सकता है।
इतना शोर होने पर भी जब हिरण्यक अपने बिल से बाहर न निकाला तो चित्रग्रीव ने उसका नाम पुकारते हुए आवाज़ लगाई, ‘मित्र, हिरण्यक तुम बाहर क्यों नहीं आते, अरे यह मैं हूं, चित्रग्रीव, तुम्हारा मित्र।’
हिरण्यक ने अपने मित्र की आवाज़ को पहचाना तो वह कुछ निश्चिंत सा हो गया और बिल से बाहर आ गया। चित्रग्रीव को देखकर उसने कहा, ‘ओहो, मैं तो सौभाग्यशाली हूं जो आज मेरा मित्र मेरे घर आया है।’
मुसीबत के समय जो काम आए, वही व्यक्ति सच्चा मित्र कहलाता है। हिरण्यक भी चित्रग्रीव का सच्चा मित्र था। उसने जब देखा कि चित्रग्रीव सहित कबूतर जाल में फंसे हुए है तो उसको भारी आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘ मित्र यह सब क्या है? ‘
चित्रग्रीव बोला – ‘ मित्र, यह सब मेरे पूर्व – जन्म के कर्मो का फल है। जो प्राणी जिसके द्वारा, जिस प्रकार, जिस समय जो, जो भी कुछ और जितना भी, जिस स्थान पर शुभ या अशुभ कर्म लिए रहते है, वह उसी के कारण, उसी के द्वारा और उसी भांति, उतना ही, उसी स्थान पर भाग्य के फल के वशीभूत होकर उस कार्य का भोग करता है। ‘
चित्रग्रीव ने आगे कहा – ‘ मित्र ! रोग, शोक, संताप, बंधन, क्लेश आदि ये सब तो मनुष्यों के अपने कर्मो के स्वरूप इस समय इन अवस्था में है। ‘
यह सुनकर हिरण्यक ने कहा, ‘ मित्र ! में इतनी ज्ञान-ध्यान की बातें तो जनता नहीं हूं, हाँ, इतना मैं समझ रहा हूं की मैं इन समय मेरा मित्र मुसीबत में है और उसे मेरी सहायता की जरुरत है। मैं अभी तुम्हें इस जाल से मुक्त किए देता हूं। ‘
ऐसा कहकर हिरण्यक जैसे ही चित्रग्रीव के बंधन काटने के लिए आगे बढ़ा, उसे ऐसा करते देख चित्रग्रीव तुरंत बोल पड़ा, ‘ नहीं मित्र ! ऐसे नहीं, पहले आप, ये जो मेरे आश्रित है, उसके बंधन काटो, उसके बाद ही मेरे बंधन काटना। ‘
हिरण्यक बोला – ‘ मित्र ! मुझमे इतना बल ही कहां है। मैं तो एक छोटा सा जीव हूं। फिर मेरी दातें भी इतनी मजबूत नहीं। इन सबके बंधन काटूँगा तो मेरे दाँत ही टूट जायेंगे। मैं पहले आपके बंधन काटूँगा, फिर यदि मेरे दाँत नहीं टूटे तो इन सबके बंधन भी काट दूँगा। ‘
‘ नहीं मित्र, पहले इनके बंधन काटिए। उसके बाद मेरे बंधन काटीयेगा। ‘
‘ परन्तु मित्र, यह तो शास्त्र-विरुद्ध है। कहा भी गया है की मुसीबत से बचने के लिए व्यक्ति को पहले धन की रक्षा करनी चाहिए और धन से भी अधिक स्त्रियों की रक्षा करना उसका कर्तव्य बनता है, किंतु धन और स्त्री से भी प्रथम खुद की रक्षा करना उसका प्रमुख कर्तव्य होता है। कारण-धर्म, अर्थ, मोक्ष और काम के प्रमुख कारण प्राण ही तो होता है। विपतिकाल में सर्वप्रथम अपने प्राण ही व्यक्ति का पर्मुख कर्तव्य होता है। ‘
‘ तुम ठीक कहते हो मित्र। निति भी यही कहती है, परन्तु मैं अपने आश्रतों का दुख सहने में सर्वथा असमर्थ हूं इसीलिए ऐसा कहता हूं। क्योंकि समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने धन और जीवन को भी परोपकार में लगा दे। धन और शरीर तो नाशवान है, तब क्यों न इन्हें किसी शुभ कार्य के लिए लिए त्याग दिया जाए। फिर यह तो साधारण नहीं अपितु असाधारण कारण है। वैसे तो यह भी कबूतर है और मैं भी एक कबूतर हूं। अपने जाती, गुण में हम समान ही है, तथापि इनसे पहले यदि मैं अपने बंधन कटवा लूँ तो मेरी प्रभुता का कब और क्या फल होगा? तब तो मैं इनसे भी छोटा कहलाया जाऊँगा।
और फिर यह भी सोचों की ये सब बिना वेतन मेरी सेवा करते है, मेरा साथ नहीं छोड़ते, सदा मेरी सेवा में लगे रहते है। इसलिए मेरे प्राणों की चिंता छोड़कर पहले मेरे इन आश्रितों को प्राणदान दीजिए। ‘
हिरण्यक ने जब यह बातें सुनी तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसे अपने मित्र पर गर्व भी हुआ। वह बोला, ‘ मित्र ! तुम्हारे आदर्श महान है। सचमुच यह शरीर तो नाशवर है, क्षणिक है, किंतु व्यक्ति के गुण तो चिरस्थायी है। अपने आश्रतों के प्रति इतने ऊँचे भावों के करण तुम्हें तो तीनों लोकों का अधिपति बनना चाहिए। ‘
इतना कहकर हिरण्यक ने कबूतरों के बंधन काटने आरंभ कर दिए। सबसे अन्त में उसने चित्रग्रीव को भी बंधन मुक्त कर दिया। “