Jaisa karoge waisa bharoge, ek kahani.. कांचनपुर नाम के एक नगर में वीर विक्रम नाम का एक राजा राज्य करता था। एक बार उसके राज्य में किसी नाई ने एक भयंकर अपराध कर दिया। राजा ने उस नाई को मृत्यु-दंड दे दिया। जब राज्य के कर्मचारी उस नाई को वधस्थल पर ले जा रहे थे तो कंदर्पकेतु नमक एक संन्यासी ने अपने साथी की सहायता से उस नई को छुड़ा लिया। इससे उस राज-कर्मचारी को क्रोध आ गया। उसने गुस्सा होकर पूछा, ‘ संन्यासी होकर आप यह क्या कर रहे हैं। राजाज्ञा का अवमानना कर रहे हैं। ‘
संन्यासी बोला, ‘यह वध के योग्य नहीं है।’
राज-कर्मचारी द्वारा यह पूछने पर कि वह वध के योग्य क्यों नहीं है, संन्यासी ने उसे बताया, ‘ सुनो मेरा नाम कंदर्पकेतु है। मैं सिंहल द्वीप के राजा जीमूतकेतु का पुत्र हूं। एक समय मैं अपने विहार-उद्धान में बैठा हुआ था। उस समय नावों द्वारा व्यवसाय करने वाले एक व्यापारी के मुख से मैंने यह सुना कि इस समुद्र के बीच चतुर्दशी के दिन कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों से जड़ित एक पलंग पर बैठकर एक कन्या प्रकट होती है, जिसका रूप साक्षात लक्ष्मी के समान है। ‘\
जैसी करनी वैसी भरनी – कहानी
यह सुनकर मैं अपनी जिज्ञासा न रोक सका। मैं उस व्यापारी के साथ उस स्थान पर जा पहुंचा। सचमुच चतुर्दशी के दिन मैंने समुद्र में से निकलती एक सुन्दर कन्या को देखा, जो कल्पवृक्ष के नीचे रत्नों से जड़े एक पलंग पर बैठकर मधुर सुरों में विणावादन कर रही थी। उसे देखकर मैं अपने आपा खो बैठा और उसे पाने की इच्छा से समुद्र में कूद गया।
समुद्र में कूदते ही मैं एक स्वर्णिय महल में पहुँच गया। वहां भी मैंने उस कन्या को देखा। उस समय वह अपनी सखियों से घिरे बैठी थी। उसकी सखियाँ उसकी सेवा-टहल कर रही थी। उसने मुझे वहां देखा तो सारी सखियों को वहीँ से विदा कर दिया, फिर वह मेरे साथ वार्तालाप करने लगी।
अब में मैंने उसकी एक सखी से उसके बारे में जानकारी प्राप्त की तो पता चला की उस कन्या का नाम रत्नमंजरी है और विद्द्याध्रों के राजा कंदर्पकेली की कन्या है। उसी सखी से मुझे यह भी पता चला कि रत्नमंजरी ने एक प्रतिज्ञा की हुई है कि जो भी व्यक्ति यहाँ आकर उसकी इस स्वर्णपूरी को अपनी आँखों से देख लेगा उसी के साथ वह विवाह करेगी।
उस सखी ने मुझे यह भी सुझाव दिया कि मैं रत्नमंजरी से विवाह कर लू। मैंने वैसा ही किया और उस दिन से मैं उसी नगर में रहता हुआ विहार करने लगा।
एक दिन मेरी प्रियतमा ने मुझसे कहा – ‘ है स्वामी, यहाँ जो कुछ भी है, सब आपका है। उसका निश्चिंत होकर उपभोग कीजिए, किंतु यह जो चित्रलिखित स्वर्णरेखा है, उसका कभी भूलकर भी स्पर्श मत करना।’
उसके ऐसा कहने पर मेरे मन में भी उस चित्रलिखित विद्धधरी के विषय में जानने की उत्सुकता बढ़ गई। मैं जानना चाहता था कि उसका स्पर्श करने से आखिर होता क्या है? इसलिए एक दिन मैंने मौका देखकर उसका स्पर्श कर ही लिया।
तत्काल उस चित्रलिखित विद्धधरी ने मुझे इतनी जोर से लात मारी के मैं वहां से अपने राज्य में आकर गिरा। उस घटना से मैं इस पृथ्वी पर इधर-से उधर भ्रमण करता हूं।
कुछ ही दिन पहले मैं इस नगरी में आया। एक दिन रात को मैं एक ग्वाले के घर सोया। ग्वाला अपने मित्रों से मिल-जुलकर देर रात गए घर लौटा। उस समय उसने अपने पत्नी को किसी कुटनी से बातचित करते देख लिया। ग्वाला इस बात से नाराज़ हो गया। गुस्से में भरकर उसने अपनी पत्नी को पिट डाला और उस रात-भर के लिए एक खंभे से बांध दिया। वह सब करके वह सो गया।
कुछ रात बीतने पर वह नाई की कुटनी पत्नी ग्वाले की पत्नी के पास पहुंची और उससे कहा, ‘अरी सखी, तेरे प्रेमी की तो बहुत बुरी दशा हो रही है। वह तुझसे मिलने के लिए तड़प रहा है। उसकी दशा मुझसे तो देखी नहीं गई इसलिए मैं एक बार फिर तुम्हें मनाने आई हूं कि चलकर उस बेचारे को कुछ सांत्वना दे आओ।’
इस पर ग्वालिन बोली – ‘ पर मैं इस हालत में कैसे उसके पास जा सकती हूं। तुम तो देख ही रही हो कि मेरे पति ने मुझे इस खंभे से बंध दिया है। ‘
नाईन बोली, तुम बात की चिंता मत करो। तुम अपने प्रेमी के पास जाओ और जल्दी ही लौट आना। तब तक तुम्हारी जगह मैं यहाँ बंध जाती हूं। ‘
तब उन्होंने ऐसा ही किया। ग्वालिन चली गई और उसकी जगह नाईन बंध गई।
थोड़ी ही देर बाद ग्वाले की नींद टूटी। वह अब भी गुस्से में था। वह खंभे के पास पहुँचकर बोला, ‘तू अपने प्रेमी के बिना रह नहीं सकती न तो चल, मैं तुझे उसके पास लेकर चलता हूं।’
अब नाईन क्या बोलती? बोलती तो उसकी चोरी पकड़ी जाती इसलिए वह चुप ही रही। उसके न बोलने पर ग्वाले को और भी क्रोध चढ़ आया। वह कहने लगा, ‘ अपने रूप का इतना घमंड हो गया है तुझे? मेरे प्रश्न का उत्तर भी नहीं देती?’
नाईन फिर भी खामोश रही। इस पर ग्वाले का क्रोध अपनी चरम-सीमा पर जा पहुंचा। उसने पास रखी एक कैची उठाई और अपनी पत्नी-रूपी उस नाईन के नाक काट ली। उसके बाद वह फिर से जाकर सो गया।
कुछ समय बाद अपने प्रेमी से मिलकर वह ग्वालिन भी लौट आई। उसने नाईन से पूछा, ‘क्यों क्या हाल रहा?’
नाईन बोली – ‘मेरे साथ बहुत बुरी बीती। मेरे मुख की ओर देखो। तेरे पति ने तो मेरी नाक ही काट डाली है।’
तब ग्वालिन ने नाईन को जल्दी-जल्दी खोला और फिर से खुद को खंभे से बंध लिया। नाईन अपनी कटी नाक लेकर अपने घर को चली गई।
सवेरे उठकर नाई ने अपने काम पर जाने के लिए अपनी पत्नी से हजामत के उपकरण देने के लिए कहा तो उसने केवल एक उस्तरा पेटी से निकलकर उसकी ओर फेंक दिया। नई ने जब सिर्फ उस्तरा ही अपनी ओर फेंके जाते देखा तो उसे क्रोध चढ़ आया। उसने वह उस्तरा भीतर की ओर फेंक दिया।
बस फिर क्या था, उस नाईन को बहाना मिल गया। उसने चिल्लाना शुरू कर दिया कि उसके पति उसकी नाक काट दी है। इस प्रकार वह उसे न्यायाधीश के पास खिंच ले गई।
उधर जब ग्वाला सुबह उठा और अपनी पत्नी की कटी नाक के बारे में पूछा तो उसकी कुलटा पत्नी कहने लगी, अरे नीच, पापी, भला इस संसार में है कोई ऐसा व्यक्ति जो मुझ जैसी सती-साध्वी को कुरूप कर सके। सारे देवतागण मेरे आचरण के विषय में जानते हैं। मैं तो परम सती हूं।
मैंने कभी सपने में भी किसी पर-पुरुष का ध्यान मन में नहीं किया। तभी तो मेरी कटी हुई नाक अपने आप जुड़ गई है। अरे कलंकी। मैं चाहूँ तो तुझे अपने सतीत्व के तेज से अभी भस्म कर सकती हूं, किंतु तू पति है मेरा, इसीलिए समाज और लोक-लज्जा के करण बस तुझे छोड़ रही हूं। अब जरा उठकर मेरे मुख की ओर तो देख।
यह सुनकर ग्वाले ने अपनी पत्नी के चेहरे की ओर देखा और उसकी नाक अपनी जगह पर पाई तो भयभीत हो गया। वह उसके पैरों पर गिर पड़ा और गिडगिडाकर कहने लगा, ‘मैं तो धन्य हो गया जो मुझे तुम्हारे जैसी सती-साध्वी पत्नी प्राप्त हुई है।’
अब तुम इसका भी व्र्त्तांत सुनो – जो साधू मेरे पास साथ है, यह अपने घर से भाग गया। 12 वर्ष तक यह मलयगिरी पर्वत पर रहा है और अब इस नगर में आया है। एक दिन यह यहाँ की किसी वेश्या के घर जाकर सो गया। उस वेश्या के दरवाज़े पर लकड़ी से बने बेताल के सिर पर एक बहुमूल्य हिरा जड़ा हुआ था।
इतना कीमती रत्न देखकर इसके मन में लोभ जाग उठा और इसने रात को उस हीरे को निकालने की चेष्टा की, किंतु जैसे ही इसने उसका स्पर्श किया, उसमें छिपे बेताल ने इसे कसकर पकड़ लिया। छूटने के पहले तो इसने प्रयास किया किंतु जब बेताल की पकड़ से मुक्त न हो सका तो डरकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा।
इसका चिल्लाना सुनकर वेश्या की नींद उचट गई और यह जानने के लिए कि यह साधू क्यों चिल्ला रहा है, इसके पास पहुँच गई। उसने जब यह दृश्य देखा तो बोली, ‘बेटा, तुम मलयगिरी के पर्वत से आए हो। तुम्हारे पास जितने रत्न हों, वह इस बेताल को दे दो तभी यह तुमको छोड़ेगा। सब व्यक्तियों के साथ ऐसा ही व्यवहार करता है।’
साधू निरुपाय था। छूटने का कोई साधन न देख, इसने अपना सर्वश्व उस वेश्या को दे दिया। वहां से यह रस्ते में मुझे मिल गया और तभी से मेरे साथ ही है।
दमनक ने बताया – न्यायाधीश ने जब उस नाई का अभियोग सुना और उसकी साक्षी की जांच-पड़ताल करे तो उसे विश्वास हो गया कि यह नाई निरपराध है। तब उसने नाई को आरोपमुक्त कर दिया नाईन और उस ग्वालिन का शहर से निष्कासन कर दिया।